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                                                        पर्वतराज हिमालय ने आदिशक्ति से पुछा -हे माहेश्वरी !अब आप ज्ञान प्रदान करने वाले योग का  सांगोपांग वर्णन कीजिये जिसकी साधना से मैं तत्वदर्शन की प्राप्ति के योग्य हो जाऊं।         आदिशक्ति बोलीं --हे नग !यह योग न आकाश मण्डल में है न पृथ्वी ताल पर है और न तो रसातल में ही है। योग विद्या के विद्वानों ने जीव और आत्मा के ऐक्य यानी एकाकारिता को ही योग कहा है। हे अनघ !उस योग विद्या में विघ्न उत्पन्न करने वाले काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,और मात्सर्ग नामक ये छह प्रकार के दोष बताये गए हैं। अतः योग  के अंगों के द्वारा उन विघ्नों का उच्छेद करके योगियों को योग की प्राप्ति करनी चाहिए।       देवी बोलीं --मुनियों ने जीवात्मा और परमात्मा में नित्य समत्व भावना रखने को समाधि क...
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गूगल से साभार चित्र                                                                                    हे पृथ्वीपते यह मेरा शरीर आपकाही है   यद्यपि मैं समर्थ  नहीं हूँ फिर भी आप कहिये मैं आपकी क्या सेवा  करूँ  ?मेरे रहते आपको किसी प्रकार की चिंता नहीं होनी चाहिए। में आपका  असाध्य कार्य भी तत्काल पूरा करूंगा।                हे राजन !आप बताइये की आपको किस बात की चिंता है ?मैं अभी धनुष लेकर उसका निवारण कर दूंगा। यदि मेरे इस शरीर से भी आपका कार्य सिद्ध हो सके तो मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण करने को तत्पर हूँ। उस पुत्र को धिक्कार है ,जो समर्थ होकर भी अपने पिता की इच्छा पूर्ण नहीं करता। जिस पुत्र के द्वारा पिता की चिंता दूर न हुई ,उस पुत्र का जन्म लेने का क्या प्रयोजन ?         ...