पर्वतराज हिमालय ने आदिशक्ति से पुछा -हे माहेश्वरी !अब आप ज्ञान प्रदान करने वाले योग का सांगोपांग वर्णन कीजिये जिसकी साधना से मैं तत्वदर्शन की प्राप्ति के योग्य हो जाऊं।
आदिशक्ति बोलीं --हे नग !यह योग न आकाश मण्डल में है न पृथ्वी ताल पर है और न तो रसातल में ही है। योग विद्या के विद्वानों ने जीव और आत्मा के ऐक्य यानी एकाकारिता को ही योग कहा है। हे अनघ !उस योग विद्या में विघ्न उत्पन्न करने वाले काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,और मात्सर्ग नामक ये छह प्रकार के दोष बताये गए हैं। अतः योग के अंगों के द्वारा उन विघ्नों का उच्छेद करके योगियों को योग की प्राप्ति करनी चाहिए।
- देवी बोलीं --मुनियों ने जीवात्मा और परमात्मा में नित्य समत्व भावना रखने को समाधि कहा है
हे नग !इस पंचभूतात्मक शरीर को "विश्व "कहा जाता है। चंद्र ,सूर्य ,और अग्नि के तेज से युक्त होने पर इड़ा -पिङ्गला -सुषुम्ना में योग साधना से जीव ब्रह्म की एकता होती है
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दायीं और जो पिंगला नामक नाड़ी है ,वह पुरुष रूपिणी तथा सूर्यमूर्ति है। उनके बीच में जो सर्वतेजोमयी तथा अग्निरूपिणी नाड़ी स्तिथ है वह सुषुम्णा है। उसके भीतर विचित्रा नामक नाड़ी स्तिथ है और उसके भीतर इच्छा -ज्ञान -क्रिया शक्ति से संपन्न करोड़ों सूर्यों के तेज के समान स्वयंभू लिंग है। उसके ऊपर रक्त विग्रह वाली शिखा के आकार की कुण्डलिनी है। हे पर्वतराज !वह देवात्मिका कही गयी है और मुझसे अभिन्न है
कुण्डलिनी के बाह्य भाग में स्वर्ण के चतुर्दल कमल मूलाधार -का चिंतन करना चाइये ,जिस पर व,श,ष ,स -ये चार बीजाक्षर स्तिथ हैं। उसके ऊपर छः दलवाला उत्तम स्वाधिष्ठान पदम् स्तिथ है जो अग्नि के समान तेजोमय ,हीरे की चमक वाला और ब ,भ,म ,य ,र ,ल ,-इन छह बीजाक्षरों से युक्त है। आधार सटकोण पर स्तिथ होने के कारण मूलाधार तथा स्व सब्द से परम लिंग को इंगित करने के कारण स्वाधिष्ठान संज्ञा है
आगे भी जारी ----------------
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