गूगल से साभार चित्र 

        राजा शांतनु ने निषाद कन्या से कहा -मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर चली गयी है तबसे मैंने अपना दूसरा विवाह नहीं किया है। हे कांते !मैं इस समय विधुर हूँ -तुम जैसी सर्वांग सुंदरी को देखकर मेरा मन अपने वशमें नहीं रहगया है। 

      राजा की अमृतरस के सामान मथुर तथा मनोहारी बात सुनकर वह दास कन्या सुगंधा सात्विक भावसे युक्त होकर धैर्य धारण करके राजा से बोली -हे राजन !आपने मुझसे जोकुछ कहा वह यथार्थ है किन्तु आप अच्छी तरह जान लीजिये कि मैं स्वंतंत्र नहीं हूँ। मेरे पिताजी ही मुझे दे सकते हैं। अतएव आप उन्हीं से मेरे लिए याचना कीजिये 

       मैं एक निषाद की कन्या होती हुई भी स्वेच्छा चारिणी नहीं हूँ। मैं सदा पिता के वश में रहती हुई सब काम करती हूँ। यदि मेरे पिता जी मुझे आपको देना स्वीकार कर लें तो आप मेरा पाणिग्रहण कर लीजिये और मैं सदा के लिए आपके आधीन हो जाऊंगी। हे !राजन !परस्पर आसक्त  होने पर भी कुल की मर्यादा के अनुसार धैर्य धारण करना चाहिए। 

         सुगंधा के यह बात सुनकर कामातुर राजा उसे माँगने के लिए निषाद राजा के घर गए। इस प्रकार महाराज शांतनु को अपने घर आया देखकर निसाद राज को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़ वह बोलाहै  -निषाद ने कहा -हे राजन !मैं आपका दास हूँ आपके आगमन से मैं कृतकृत्य हो गया। महाराज !आप जिस  कार्य के लिए आये हों मुझे आज्ञा दीजिये
          राजा बोले -हे अनघ !यदि आप अपनी यह कन्या मुझे प्रदान करें तो मैं इसे अपनी धर्म पत्नी बना लूँगा
यह मैं सत्य कह रहा हूँ।
         निसाद ने कहा -हे राजन !यदि आप इस कन्यारत्न के लिए प्रार्थना कर रहे हैं तो मैं आपको जरूर दूंगा। किन्तु हे महाराज !आपके बाद इस कन्या का पुत्र ही राजा के रूप में अभिषित होना चाहिए अन्य दूसरा पुत्र नहीं
     
         सूतजी बोले -निषाद की बात सुनकर राजा शांतनु चिंतित हो उठे। उस समय मन में भीष्म का स्मरण करके राजा  कुछ भी उत्तर न दे सके। तब कामातुर तथा चिंतित राजा राजमहल में चेले गए उनहोंने घर जाने पर न स्नान किया ;न भोजन किया और न शयन ही किया।

       उन्हें चिंतित देखकर पुत्र  देवब्रत राजा के पास जाकर उनकी इस चिंता का कारण पूछने लगे -हे नृप श्रेष्ठ !कोनसा ऐसा शत्रु है जिसको आप जीत न सके ,मैं उसे आपके अधीन कर दूँ। आपकी क्या चिंता है मुझे सही -सही बताइये

     हे राजन !भला उस उत्पन्न हुए पुत्र से क्या लाभ ?जो पैदा होकर अपने पिता का दुःख न समझे तथा उसको दूर करने का उपाय न कर सके ऐसा कुपुत्र तो पूर्वजन्म के किसी ऋण को वॉयस लेने के लिए यहाँ आता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है

    दशरथ के पुत्र रामचंद्र जी भी पिता की आज्ञा से राज्य त्याग कर लक्ष्मण और सीता के साथ वन में चले गए तथा चित्रकूट पर्वत पर निवास करने लगे
  इसी प्रकार हे राजन !राजा हरिशचंद्र का पुत्र रोहित अपने पिता की इच्छा के अनुसार बिकने के लिए तत्पर  हो गया और खरीदा कुआ वह बालक ब्राह्मण के घर में सेवक का कार्य करने लगा

    पूर्वकाल में पिता की आज्ञा से ही परशुराम ने अपनी माता का सर काट दिया था ,ऐसा लोक में प्रसिद्द है। इस अनुचित कर्म को करके भी उन्होंने पिता की आज्ञा का महत्त्व बढ़ाया था  

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