अश्विनी कुमारों के द्वारा वर प्राप्त कर सुन्दर रूप ,नेत्र ,यौवन तथा अपनी भर्या को पा  कर च्यवन मुनि अत्यंत हर्षित हुए। उन महा तेजस्वी मुनि ने अश्विनी कुमारों से कहा - हे देववरो ! आप दोनों ने मेरा महान उपकार किया है। आप लोगों ने मुझे नेत्र ,युवावस्था तथा सुन्दर रूप प्रदान किया है। अतः मैं भी आपका कुछ उपकार करूँ। इसके लिए आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ। हे देववरो ! जो मनुष्य उपकार करने वाले मित्र का किसी प्रकार का उपकार नहीं करता उस मनुष्य को धिक्कार है। ऐसा मनुष्य पृथ्वी लोक में अपने उपकारी मित्र का ऋणि होता है। 
      अतएव हे देववरो ! मुझे नूतन शरीर प्रदान करने के उपकार के बदले, मैं इस समय आपकी कोई अभिलषित वस्तु आपको प्रदान करना चाहता हूँ। मैं आप दोनों को वह अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा जो देवताओं तथा दानवों के लिए भी अलभ्य है।अब आप लोग  अपना मनोरथ प्रकट करें। 

       च्यवन मुनि के वचन सुनकर वे दोनों अश्विनी कुमार मुनि से कहने लगे - हे मुने ! पिताजी की कृपा से हमारा सारा मनोरथ पूर्ण है। किन्तु देवताओं के साथ सम्मिलित होकर सोमरस  पीने की इच्छा शेष रह गयी है। एक बार सुमेरु पर्वत पर ब्रह्मा जी के महा यज्ञ में इंद्र देव ने हम दोनों को वैद्य कहकर सोमपात्र ग्रहण करने से रोक दिया था। 

        अतेव हे धर्मज्ञ ! यदि आप समर्थ हों तो हमारा यह कार्य कर दीजिये। हमारी इस प्रिय इच्छा पर विचार करके आप हम दोनों को सोमपान का अधिकारी बना दीजिये। सोमपान की  अभिलाषा हमारे लिए अत्यंत दुर्लभ हो गयी है। वह आपसे शांत हो जाएगी। 

          उन दोनों की बात  सुनकर  मुनि ने मधुर वाणी में कहा - आप दोनों ने मुझ वृद्ध को युवावस्था एवं रूप संपन्न बना दिया है और आपके अनुग्रह से मैंने साध्वी भार्या भी प्राप्त कर ली है। अतः मैं अमित तेजस्वी राजा शर्याति के विचार यज्ञ में देवराज इंद्र के समक्ष ही आप दोनों को प्रसन्नता पूर्वक सोमपान का अधिकारी बना दूंगा। मैं यह सत्य कह रहा  हूँ।  यह बात सुनकर अश्विनी कुमारों ने हर्ष पूर्वक स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। और च्यवन मुनि भी सुकन्या को साथ लेकर अपने आश्रम पर चले गए.

       दूसरे देवता के समान तेजस्वी मुनि सुंदर रूप वाली उस देवकन्या स्वरूपिणी सुकन्या को पाकर प्रसन्नचित हो गए और उसके साथ विहार करने लगे। 

       कुछ समय पश्चात महाराज शर्याति की पत्नी अपनी कन्या के विषय में अत्यंत चिंतित होकर और रोती  हुयी अपने पति से बोली - हे राजन ! आपने वन में एक अंधे मुनि को पुत्री सौंप दी थी। वह न जाने जीवित है अथवा मर गयी। अतः आपको उसे सम्यक रूप से देखना चाहिए। हे नाथ ! केआप मुनि के  आश्रम में आदर पूर्वक यह देखने के लिए जाइये कि उस प्रकार का पति पा कर वह सुकन्या क्या कर रही है। 

       हे राजन ! पुत्री के दुःख के कारण मेरा हृदय जल रहा है। नेत्र हीन पति पाकर महान कष्ट भोगने वाली वल्कल धारण करने वाली तथा क्षीण कटि - प्रदेश वाली अपनी पुत्री को मैं देखना चाहती हूँ। 
शर्याति बोले - हे विशालाक्षी ! मैं अभी अपनी प्रिय पुत्री सुकन्या को आदर पूर्वक देखने के लिए च्यवन मुनि के पास जा रहा हूँ। 

         शोक से अत्यंत व्याकुल अपनी पत्नी से ऐसा कहकर राजा शर्याति रथ पर बैठकर मुनि के आश्रम की ओर तुरंत चल पड़े। आश्रम के निकट पहुंचकर राजा शर्याति ने देवपुत्र के समान प्रतीत होने वाले एक नवयौवन से संपन्न मुनि को वहां देखा। देवताओं के स्वरूप वाले उस मुनि को देखकर राजा शर्याति विस्मय में पड़ गए।  सोचने लगे कि मेरी पुत्री ने लोक निंदा करने वाला यह कैसा नीच कर्म कर डाला।  

         ऐसा प्रतीत होता है कि इसने कामपीड़ित होकर उन वृद्ध शांत चित्त तथा अति निर्धन मुनि का वध  कर दिया।  किसी अन्य को अपना पति बना लिया है। इस पुत्री ने तो मनोवंश में बड़ा भारी कलंक लगा दिया। ऐसी पुत्री मनुष्यों के लिए सभी पापों से बढ़कर दुःख देने वाली होती है। मैंने भी तो स्वार्थ सिद्धि के लिए ऐसा अनुचित कार्य कर दिया था। जो की जानबूझकर नेत्रहीन वृद्ध मुनि को अपनी पुत्री सौंप दी। अब यदि मैं पाप कर्म करने वाली इस दुश्चरित्र कन्या को मार डालता हूँ तो मुझे  स्त्री हत्या और विशेष रूप से पुत्री हत्या का बड़ा भारी दोष लगे  


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