राजा शर्याति जब चिंता के सागर में डूबे हुए थे ,उसी समय सुकन्या ने चिंता से आकुल अपने पिता को संयोग वश देख लिया। उन्हें देखते ही प्रेम से परिपूर्ण हृदय वाली वह सुकन्या अपने पिता राजा शर्याति के पास गयी और वहां जाकर उनसे पूछने लगी। हे राजन ! कमल के समान नेत्र वाले बैठे हुए इन युवा मुनि को देखकर चिंता के कारण व्याकुल मुखमण्डल आप इस समय क्या सोच रहे हैं ? हे पिताजी ! इधर आईये और मेरे पति को प्रणाम कीजिये। हे मनुवंशीय राजन ! इस समय आप शोक मत कीजिये। 

       तब अपनी पुत्री सुकन्या की बात सुनकर क्रोध से संतप्त राजा शर्याति अपने सामने खड़ी उस कन्या से कहने लगे - हे पुत्री ! परम तपस्वी वृद्ध तथा नेत्रहीन वे मुनि च्यवन कहाँ है ? ये मदोन्मत युवक कौन हैं ? इस विषय में मुझे महान  संदेह हो रहा है। दुराचार में लिप्त रहने वाली हे पापिनी ! हे कुलनाशिनी ! क्या तुमने च्यवन मुनि को मार डाला और काम के वसीभूत होकर इस पुरुष का नये पति के रूप में वरण कर लिया। इस आश्रम में रहने वाले उन मुनि को मैं इस समय नहीं देख रहा हूँ। इसलिए मैं चिंताग्रस्त हूँ। तुमने यह नीच कर्म क्यों किया ? 

        हे दुराचारिणी ! इस समय तुम्हारे पास इस दिव्य पुरुष को देखकर तथा उन च्यवन को न देखकर मैं तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किये गए शोक सागर में डूबा हुआ हूँ। 

       अपने पिता की बात सुनकर उन्हें साथ लेकर वह सुकन्या तुरंत पति के पास पहुंची और उनसे आदर पूर्वक कहने लगी - हे तात ! यह आपके जामाता च्यवन मुनि ही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। अश्विनी कुमारों ने इन्हे ऐसा कांतिमान तथा कमल के समान नेत्र वाला बना दिया है। वे दोनों अश्विनी कुमार एक बार देव योग से मेरे आश्रम में पधारे थे। उन्होंने ही दयालुता पूर्वक च्यवन मुनि को ऐसा कर दिया हैं। 

       हे पिता जी ! मैं आपकी पुत्री हूँ। मेरे पति देव का यह रूप देखकर संसय में पड़े हुए आप मोह के वसीभूत होकर मुझे जैसी समझ रहे है ,मैं वैसी पाककृत्य करने वाली नहीं हूँ। 

       हे राजन ! भृगुवंश को सुशोभित करने वाले च्यवन मुनि को आप प्रमाण करें। हे पिताजी आप इन्हीं से पूछ लीजिये ,ये आपको सारी बात बता देंगे।  तब पुत्री की बात सुनकर राजा शर्याति ने तुरंत मुनि के पास पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया और वे उनसे आदर पूर्वक पूछने लगे - 

        राजा बोले - हे भर्गव !आप अपना सारा  वृतांत समुचित रूप से मुझे शीघ्र बताइये। तब च्यवन बोले - हे नृप श्रेष्ठ देवताओं की चिकित्सा करने वाले दोनों अश्विनी कुमार एक बार यहाँ आये थे। उन दोनों ने ही कृपा पूर्वक यह उपकार किया है।  मैंने उन दोनों को उस उपकार के बदले वर दिया है कि मैं आप दोनों को राजा शर्याति के यज्ञ में सोमपान का अधिकारी बना दूंगा। हे महाराज ! आप निश्चिन्त रहें और इस पवित्र आसन पर विराजमान हों। तत्पश्च्यात भृगुवंशीय च्यवन मुनि ने राजा से कहा - हे राजन ! मैं आपसे यज्ञ कराऊंगा। आप यज्ञ सम्बन्धी सामग्रियाँ एकत्र कीजिये।  हे राजन ! आपके सोमयज्ञ में इंद्र के कोप करने पर मैं अपने तेजबल से शांत कर दूंगा।  और उन देव वैद्यों को सोमरस पिलाऊंगा।

        तदनन्तर सम्पूर्ण कामनाओं से परिपूर्ण राजा शर्याति ने किसी शुभ मुहूर्त में एक उत्तम यज्ञ शाला का निर्माण कराया । उसके बाद वसिष्ठ आदि प्रमुख पूज्य मुनियों को बुलाकर भृगुवंशीय च्यवन मुनि ने राजा शर्याति से यज्ञ करना आरम्भ कर दिया।  इस यज्ञ में इंद्र सहित सभी देवता उपस्थित हुए और दोनों अश्विनी कुमार भी सोमपान की इच्छा से वहां आये। 

        वह दोनों अश्विनी कुमारो को भी उपस्थित देखकर इंद्र सभी देवताओं से पूछने लगे ये दोनों क्यों आये हैं ? ये चिकित्सक हैं अतः ये सोमरस पीने के अधिकारी नहीं हैं। इस पर राजा के उस यज्ञ में उपस्थित देवताओं ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

       तत्पश्च्यत जब च्यवन मुनि अश्विनी कुमारों को सोमरस ग्रहण करने लगे तब इंद्र ने उन्हें रोका। तब च्यवन मुनि ने इंद्र से कहा - ये सूर्य पुत्र अश्विनी कुमार सोमरस ग्रहण करने के अधिकारी कैसे नहीं हैं?  हे सचीपते ! आप इस बात को प्रमाणित कीजिये। हे मगवन मैंने ही इस यज्ञ के लिए राजा शर्याति को प्रेरित किया है। इनके लिए मैं ऐसा अवश्य करूँगा। मुझे नवीन अवस्था प्रदान करके इन्होने मेरा बड़ा उपकार किया है। अतः उसके बदले में  मुझे सभी प्रकार से इनका प्रति उपकार करना चाहिए। 

      हे इंद्र !  व्यर्थ  कोप मत करो। ये देव पुत्र अश्विनी कुमार सोमपान के अधिकारी हैं। इस प्रकार का विवाद छिड़ जाने पर वहाँ उपस्थित कोई भी देवता च्यवन मुनि से कुछ भी नहीं कह सका। तब अपने तपोबल के द्वारा अत्यंत तेजस्वी च्यवन मुनि ने सोमरस का भाग लेकर अश्विनी कुमारों को दे दिया।  

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