गूगल से साभार चित्र 

         श्री नारायण बोले -हे नारद !अब आप जगदम्बा का अदभुत तथा उत्तम माहात्म्य और अंग के पुत्र मनु ने जिस तरह से श्रेष्ठ राज्य प्राप्त किया था उसे सुनिए 

            राजा अंग के उत्तम पुत्र चाक्षुष छठें मनु हुए वे सुपुलेह नामक ब्रह्मर्षि की शरण में गए। उनहोंने ऋषि से कहा -शरणागतों की कष्टों को दूर करने वाले हे ब्रह्मर्षि !मैं आपकी शरण में आया हूँ। हे स्वामिन !मुझ सेवक को ऐसी शिक्षा दीजिये जिससे मैं श्री प्राप्त कर सकूं ,पृथ्वी पर मेरा आकण्ठ अधिपत्य हो जाए ,मेरी भुजाओं में अधिक बल आ जाए तथा अस्त्र -शस्त्र के प्रयोग में निपुण तथा समर्थ हो जाऊं ,मेरी संतानें चिरकाल तक जीवित रहें ,मैं उत्तम आयु वाला हो जाऊं तथा आपके उपदेश से अंत में मुझे मोक्ष लाभ हो जाए 

           उन चाक्षुष मनु का यह वचन जब मुनि पुलह के कान में पड़ा तो उन श्रीमान ने कहा -हे राजन !कानों को सुख प्रदान करने वाली मेरी बात सुनिए -देवी की आराधना सबसे बढ़कर है। इस समय आप कल्याणी जगदम्बा की उपासना कीजिये ,उन्हीं के अनुग्रह से आपको यह सब सुलभ हो जाएगा 

चाक्षुष बोले -उन देवीकी परम पावन आराधना का क्या स्वरूप है तथा उसे किसप्रकार करना चाहिए ?इसे आप मेरे ऊपर दया करके बताये मुनि बोले -हे राजन !देवी के परम सनातन पूजन के विषय में सुनिए। देवी के अव्यक्त वाग्भव मन्त्र का सतत जप करना चाहिए। इस मन्त्र का त्रिकाल जपने वाला मनुष्य भोग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। हे राजनंदन !इस बाग्भव बीज से बढ़कर अन्य कोइ बीजमंत्र नहीं है

        जप करने से यह मन्त्र श्रेष्ठ सिद्धियां प्रदान करता है और वीर्य तथा बल की वृद्धि करता है। इस मन्त्र का जप करके ही ब्रह्माजी महावली तथा सृजन करने की क्षमता वाले बन गए। हे राजन !इसी बीज का जप करके भगवान विष्णु सृष्टि पालक कहे गए तथा इसी के जप से भगवान शंकर जगत का संहार करने वाले हुए

       इन्हीं का आश्रय लेकर अन्यान्य लोकपाल भी निग्रह तथा अनुग्रह करने में समर्थ और बल तथा वीर्य से संपन्न हुए हैं

     हे राजन !इसी प्रकार आप भी माहेश्वरी जगदम्बा की सम्यक आराधना करके थोड़े ही समय में महान समृद्धि प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ पुलह से उपदिष्ट होकर वे अंगपुत्र चाक्षुष मनु  करने के लिए विरजा नदी के तटपर गए

    वे ऐश्वर्य शाली राजन चाक्षुष जीर्ण -शीर्ण पत्तों के आहार पर रहकर भगवती के बाग्भव बीज के जप में निरंतर रत रहते हुए उग्र तपस्या करने लगे। वे प्रथम वर्ष में पत्तों के आहार पर ,दूसरे वर्ष में जल पीकर और तीसरे वर्ष में केवल वायु का आहार करते हुए ठूंठ वृक्ष कीभाँति अविचल स्थिर रहे।

    आहार छोड़कर बारह वर्षों तक वाग्भव बीज का निरंतर जप करते हुए राजा चाक्षुष की बुद्धि परम पवित्र हो गयी इस प्रकार देवी के उस परम पवित्र मन्त्र का एकांत में जप करते हुए उन राजा के समक्ष जगन्माता परमेश्वरि भगवती साक्षात् प्रकट हो गयी। किसी से भी पराभूत न होने वाली तेजस्विनी सर्वदेवमयी भगवती प्रसन्न होकर ललितवाणी में उन अंगपुत्र चाक्षुष से कहने लगीं

    देवी बोली -हे पृथ्वीपाल !तुमने अपने मनमें जो भी श्रेष्ठ वर सोचा हो उसे बताओ ,तुम्हारे तप से परम संतुष्ट में उसे अवश्य दूंगी
   चाक्षुष बोले -हे देवदेवश्री !मैं जिस मनोवांछित्त वर के लिए आपसे प्रार्थना करना चाहता हूँ ,उसे आप अन्तर्यामी स्वरूप वाली होने के कारण भली -भाँती जानती हैं तदापि हे देवी !मेरे सौभाग्य से यदि आपका दर्सन हो गया है तो मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि आप मुझे मन्वन्तर से सम्बन्धित राज्य प्रदान करें।

   देवी बोली - हे नृप श्रेष्ठ !इस मन्वन्तर का राज्य मैंने तुम्हें दे दिया। तुम्हारे पुत्र भी अत्याधिक गुणवान तथा महान बलशाली होंगे। तुम्हारा राज्य निष्कंटक होगा तथा अंत में तुम्हें निश्चित रूप से मोक्ष मिलेगा

  इस प्रकार उन चाक्षुष मनु के द्वारा भक्ति पूर्वक स्तुत वे देवी उन्हें अत्यंत उत्तम वर प्रदान करके शीघ्र ही अंतर्धान हो गयीं वे राजा चाक्षुष मनु भी भगवती की कृपा से उनका आश्रय प्राप्त कर छठे मनु के रूप में प्रतिष्ठित हुए

   इस प्रकार प्रभुता संपन्न वे चाक्षुष मनु भगवती की आराधना के प्रभाव से मनुश्रेष्ठ के रूप में प्रतिष्ठित हुए और अंत में देवी के परम धाम को प्राप्त हुए
 
  

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