गूगल से साभार चित्र 
                                                  


    कुछ समय बीतने पर महाराज आखेट के लिए वन में गए। वहाँ अनेक प्रकार के मृगों भैंसों तथा सूकरों को अपने वाणों से मारते हुए वे गंगाजी के तटपर जा पहुँचे। उस नदी में बहुत थोड़ा जल देखकर वे राजा शान्तनु बड़े आश्चर्य में पड़ गए। 

           उन्होंने वहाँ नदी के किनारे खेलते हुए एक बालक को महान धनुष को खींचकर बहुत से बाणों को छोड़ते हुए देखा उसे देखकर राजा शांतनु बड़े विस्मित हुए और कुछ भी न जान पाए उन्हें यह भी स्मरण न हो पाया कि यह मेरा पुत्र है या नहीं

       उस बालक के अति मानवीय कृत्य ,वाण ,चलाने के हस्तलाघव ,असाधारण विद्या और कामदेव के सामान सुन्दर रूप को देखकर अत्यंत विस्मित राजा ने उससे पूछा - हे निर्दोष बालक !तुम किसके पुत्र हो किन्तु उस बालक ने कोइ उत्तर नहीं दिया। और वह बाण चलाता हुआ अंतर्धान हो गया। तब राजा शांतनु चिंतित होकर यह सोचने लगे कि कहीं यह मेरा ही पुत्र तो नहीं है ?अब मैं क्या करून और कहाँ जाऊँ

         जब उनहोंने वहीं खड़े होकर समाहित चित्त से गंगा जी की स्तुति की तब गंगाजी ने प्रसन्न होकर पहले के सामान रूपवती स्त्री के रूप में उनको दर्शन दिया। सर्वांग सुंदरी गंगाजी को देखकर राजा शांतनु बोले।-हे गंगे !एहबालक कौन था और कहाँ चला गया ?आप उसे मुझको दिखा दीजिये

         गंगाजी बोली -हे राजेंद्र !यह आपका ही पुत्र आठवां वसु है। जिसे मैंने पाला है इस महा तपस्वी गांगेय को मैं आपको सौंपती हूँ। यह बालक आपके इस कुलकी कीर्ति को बढ़ाने वाला होगा। इस सभी वेदशास्त्र एवं धनुर्वेद की शिक्षा दी गयी है। आपका यह पुत्र वसिष्ठ जी के दिव्य आश्रम में रहा है और सब विद्याओं में पारंगत ,कार्यकुशल एवं सदाचारी है।

          जय विद्या को परशुराम जानते है उसे आपका पुत्र जानता है हे राजेंद्र !आप से ग्रहण कीजिये जाइये और सुख पूर्वक रहिये। ऐसा कहकर तथा वह पुत्र राजा को देकर गंगाजी अंतर्धान हो गयी। उसे पाकर राजा शांतनु बहुत आनंदित और सुखीहुए

            राजा शांतनु पुत्र का आलिंगन करके तथा उसका मस्तक सूंघकर और उसे अपने रथपर बैठाकर अपने नगर की ओर चलपडे राजा ने हस्तिनापुर जाकर महान उत्सव किया और देवज्ञ को बुलाकर शुभ मुहूर्त पूछा \राजा शांतनु ने सब प्रजा जनों तथा सभी श्रेष्ठ मंत्रियों को बुलाकर गंगा पुत्र को युवराज पदपर बैठा दिया

              उस सर्वगुण संपन्न पुत्र को युवराज बनाकर वे धर्मात्मा शांतनु सुख पूर्वक रहने लगे अब उन्हें गंगाजी की भी सुध नहीं रही

              सूतजी बोले -इस प्रकार मैंने आप सबको वसुओं के शाप का कारण 'गंगा के प्राकट्य तथा भीष्म की उत्पत्ति का बृत्तांत कह दिया

                जो मनुष्य गंगावतरण तथा वसुओं के उद्धवकी इस पवित्र कथा को सुनता है वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है


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