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               देवी बोलीं ---  हे पर्वतराज !इसके ऊपर नाभिदेश में मेघ तथा विदुत के समान कान्ति वाला अत्यंत तेजसंम्पन्न और महान प्रभा से युक्त मणिपूरक चक्र है। मणि के सदृश प्रभा वाला होने के कारण यह मणिपद्म भी कहा जाता है। यह दस दलों से युक्त है और ड ,ढ ण ,त ,थ ,द ,ध ,न ,प ,फ ,-इन अक्षरों से समन्वित है। भगवान विष्णु के द्वारा अधिष्ठित होने के कारण यह कमल उनके दर्शन का महान साधन है।               उसके ऊपर उगते हुए सूरज के समान प्रभा से संपन्न अनाहत पदम् है। यह कमल क ,ख ,ग घ ,ंड़ ,च ,छ ज झ ,ज़ ट ठ ,इन अक्षरों से युक्त बारह पत्रों से प्रतिष्ठित है। उसके मध्य में  हजार सूर्यों के समान प्रभा वाला वाणलिंग स्तिथ है। बिना किसी आघात के इसमें शब्द होता रहता है अतः मुनियों के द्वारा उस शब्द ब्रह्ममय पद्म को अनाहत कहा गया है।            उसके ऊपर सोलह दलों से युक्त विशुद्ध नामक कमल है। महती प्रभा से युक्त तथा धूम्र वर्ण वाला यह कमल अ ,आ ,इ ,ई।,से लेकर ाः तक इन सोलह...
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                                                        पर्वतराज हिमालय ने आदिशक्ति से पुछा -हे माहेश्वरी !अब आप ज्ञान प्रदान करने वाले योग का  सांगोपांग वर्णन कीजिये जिसकी साधना से मैं तत्वदर्शन की प्राप्ति के योग्य हो जाऊं।         आदिशक्ति बोलीं --हे नग !यह योग न आकाश मण्डल में है न पृथ्वी ताल पर है और न तो रसातल में ही है। योग विद्या के विद्वानों ने जीव और आत्मा के ऐक्य यानी एकाकारिता को ही योग कहा है। हे अनघ !उस योग विद्या में विघ्न उत्पन्न करने वाले काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,और मात्सर्ग नामक ये छह प्रकार के दोष बताये गए हैं। अतः योग  के अंगों के द्वारा उन विघ्नों का उच्छेद करके योगियों को योग की प्राप्ति करनी चाहिए।       देवी बोलीं --मुनियों ने जीवात्मा और परमात्मा में नित्य समत्व भावना रखने को समाधि क...
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गूगल से साभार चित्र                                                                                    हे पृथ्वीपते यह मेरा शरीर आपकाही है   यद्यपि मैं समर्थ  नहीं हूँ फिर भी आप कहिये मैं आपकी क्या सेवा  करूँ  ?मेरे रहते आपको किसी प्रकार की चिंता नहीं होनी चाहिए। में आपका  असाध्य कार्य भी तत्काल पूरा करूंगा।                हे राजन !आप बताइये की आपको किस बात की चिंता है ?मैं अभी धनुष लेकर उसका निवारण कर दूंगा। यदि मेरे इस शरीर से भी आपका कार्य सिद्ध हो सके तो मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण करने को तत्पर हूँ। उस पुत्र को धिक्कार है ,जो समर्थ होकर भी अपने पिता की इच्छा पूर्ण नहीं करता। जिस पुत्र के द्वारा पिता की चिंता दूर न हुई ,उस पुत्र का जन्म लेने का क्या प्रयोजन ?         ...
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                                                       गूगल से साभार चित्र          राजा शांतनु ने निषाद कन्या से कहा -मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर चली गयी है तबसे मैंने अपना दूसरा विवाह नहीं किया है। हे कांते !मैं इस समय विधुर हूँ -तुम जैसी सर्वांग सुंदरी को देखकर मेरा मन अपने वशमें नहीं रहगया है।        राजा की अमृतरस के सामान मथुर तथा मनोहारी बात सुनकर वह दास कन्या सुगंधा सात्विक भावसे युक्त होकर धैर्य धारण करके राजा से बोली -हे राजन !आपने मुझसे जोकुछ कहा वह यथार्थ है किन्तु आप अच्छी तरह जान लीजिये कि मैं स्वंतंत्र नहीं हूँ। मेरे पिताजी ही मुझे दे सकते हैं। अतएव आप उन्हीं से मेरे लिए याचना कीजिये         मैं एक निषाद की कन्या होती हुई भी स्वेच्छा चारिणी नहीं हूँ। मैं सदा पिता के वश में रहती हुई सब काम करती हूँ। यदि मेरे पिता जी मुझे आपको देना स्व...
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           ऋषियों ने सूतजी से पूछा -हे धर्मज्ञ व्यासजी की सत्यवती नाम की माता जो पवित्र गंध वाली थी। राजा शांतनु को पत्नी रूप से कैसे प्राप्त हुईं ?हमें विस्तार से बताइये          सूतजी बोले -राजर्षि शांतनु सदा आखेट करने में तत्पर रहते थे। वे वन में जाकर मृगों आदि का वध किया करते थे। राजा शांतनु केवल चार वर्ष तक भीष्म के साथ उसी प्रकार सुख से रहे जिस प्रकार भगवान शंकर कार्तिकेय के साथ आनंद पूर्वक रहते थे।          एक बार वे महाराज शांतनु वन में वाण छोड़ते हुए बहुत से गैंडों आदि का वध करते हुए किसी समय यमुने नदी के किनारे जा पहुंचे। राजा ने वहां पर कहीं से आती हुई उत्तम गंध को सूंघा तब उस सुगन्धि के उदगम का पता लगाने के लिए वे वन में विचरने लगे।       वे वड़े असमंजस में पड़ गए। की यह मनोहर सुगन्धि न मंदार पुष्प की है और न कस्तूरी की है ,न मानती की है न चम्पा की है और न तो केतकी की ही है। मैंने ऐसी अनुपम सुगन्धि पूर्व में कभी नहीं अनुभव की। मुझे मुग्ध कर दे...
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                                                                                                 गूगल से साभार चित्र                                                         कुछ समय बीतने पर महाराज आखेट के लिए वन में गए। वहाँ अनेक प्रकार के मृगों भैंसों तथा सूकरों को अपने वाणों से मारते हुए वे गंगाजी के तटपर जा पहुँचे। उस नदी में बहुत थोड़ा जल देखकर वे राजा शान्तनु बड़े आश्चर्य में पड़ गए।             उन्होंने वहाँ नदी के किनारे खेलते हुए एक बालक को महान धनुष को खींचकर बहुत से बाणों को छोड़ते हुए देखा उसे देखकर राजा शांतनु बड़े विस्मित हुए और कुछ भी न जा...
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                                             मित्रों हर धर्म एवं हर समाज    में माता पिता को ईश्वर से  ऊँचा स्थान दिया जाता है ,क्योंकि हमें इस संसार मैं मनुष्य योनि  हमारे माता पिता द्वारा ही प्राप्त होती है। इसलिए हम  अपने माता पिता का यह कर्ज कभी भी नहीं उतार सकते। अगर हम अपने मा.तापिता की खुशी के लिए कोइ कार्य कर सकें जिसमें हमारी सारी खुशियां कुर्बान हों तो भी हमें अपने ऊपर  गर्व होना चाहिए। आज जो कथानक आरंभ हो रहा है उसमें एक पुत्र का अपने पिता की खुशी के लिए किया गया बलिदान इतिहास के पन्नों पर लिख दिया गया।         मित्रों उस नायक का नाम आप आगे खुद जान लेगें इसलिए इस कथानक को पढ़ते रहिये        सूतजी बोले प्रतीप के स्वर्ग चले जाने पर सत्यपराक्रमी राजा  सांतनु व्याघ्र तथा मृगों को मारते हुए मृगया में तत्पर हो गए किसी समय गंगा के किनारे घने वन में विचरण करते हुए रा...