राजा शर्याति एवं उनके मंत्रीगण इस शंकट पर कोई निर्णय नहीं ले सके तब अपने पिता तथा मंत्रियों को चिंता से व्याकुल देखकर सुकन्या उनका अभिप्राय समझ गयी और मुस्कराकर बोली -हे पिता जी ! आज आप चिंता से व्याकुल इन्द्रियों वाले किसलिये है ? निश्चित ही आप मेरे लिए ही अत्यंत दुःखी तथा म्लानमुख  है। अतएव हे पिताजी ! मैं अभी भयाक्रांत मुनि च्यवन के पास जाकर और उन्हें आश्वस्त करके अपने को अर्पितकर प्रसन्न करुँगी। 

      इस प्रकार सुकन्या ने जो बात कही उसे सुनकर प्रसन्न मन वाले राजा शर्याति ने सचिवों के समक्ष उससे कहा - हे पुत्री ! तुम अबला हो।  अतएव वृद्धता से त्रस्त उस अंधे तथा विशेष रूप से क्रोधी मुनि की सेवा उस वन में कैसे करोगी ? हे पुत्री ! कहाँ तो तुम ऐसी रूपवती और कहाँ वन में रहने वाला वह वृद्ध मुनि ऐसी स्थिति में ,मैं अपनी पुत्री को उस अयोग्य को भला कैसे अर्पित करू ? 

     हे पुत्री मेरा राज्य और यहाँ तक की मेरा शरीर भी रहे अथवा चला जाये ,किन्तु मैं उस नेत्रहीन मुनि को  तुम्हें किसी भी स्थिति में नहीं दूंगा।  

     तत्पश्चत सुन्दर मुख वाली सुकन्या ने स्नेह युक्त वचन कहा - हे पिताजी ! मेरे लिए आप चिंता न करें। और मुझे मुनि को सौंप दें। क्यूंकि मेरे लिए ऐसा कर देने से सम्पूर्ण प्रजा को सुख होगा । मैं इस प्रकार से संतुष्ट होकर वन में अपने परम पवित्र वृद्ध पति की अगाध श्रद्धा से सेवा करुँगी और शास्त्र सम्मत सभी  धर्म का पूर्ण रूप से पालन करुँगी। हे निष्पाक पिताजी ! भोग विलास में मेरी अभिरुचि नहीं है। आप अपने चित्त में स्थिरता रखिये। 

       सुकन्या की बातें सुनकर सभी मंत्री आश्चर्य में पड़ गए और राजा भी परम् प्रसन्न होकर मुनि के पास गए। वहां पहुंचकर उन तपोनिधि को सिर झुककर प्रणाम करके राजा ने कहा - हे प्रभो ! मेरी इस पुत्री को आप अपनी सेवा के लिए विधिपूर्वक स्वीकार कीजिये। ऐसा कहकर राजा ने विधि विधान से विवाह संपन्न करके अपनी पुत्री मुनि को सौंप दी और उस कन्या को ग्रहण करके च्यवन ऋषि भी प्रसन्न हो गए। मुनि ने राजा के द्वारा दिए गए उपहार ग्रहण नहीं किये। अपनी सेवा के लिए उन्होंने केवल राजकुमारी को ही स्वीकार किया। उन मुनि के प्रसन्न हो जाने पर सेनिको को सुख प्राप्त हुआ। उसी समय से राजा भी प्रसन्न रहने लगा। जब राजा शर्याति ने मुनि को पुत्री सौंप कर घर चलने का विचार किया तब कोमल अंगों वाली राजकुमारी सुकन्या राजा से कहने लगी -

       सुकन्या बोली - हे पिताजी ! आप मेरे वस्त्र तथा आभूषण ले लीजिये और पहनने के लिए मुझे वल्कल एवं उत्तम मृगचर्म प्रदान कीजिये। मैं मुनियों वाले वेश बनाकर तप में निरत रहती हुयी पति सेवा करुँगी। जिससे पृथ्वी तल ,रसातल स्वर्ग लोक में भी आपकी कीर्ति अक्षुण रहेगी। परलोक के सुख के लिए मैं दिन - रात मुनि की सेवा करुँगी। 

         सुन्दर तथा यौवन संपन्न अपनी पुत्री मुझ सुकन्या को एक अंधे तथा वृद्ध मुनि को सौंप कर मेरे आचरण च्युत हो जाने की शंका करके आप तनिक भी चिंता न कीजिये। 

         सुकन्या की बात सुनकर महान धर्मज्ञ राजा शर्याति वस्त्र के रूप में उसे मृगचर्म प्रदान करके रोने लगे। उस सुंदर मुख वाली अपनी पुत्री को शीघ्र ही आभूषण तथा वस्त्र त्याग कर मुनि वेश धारण किये देखकर राजा म्लानमुख होकर वही पर ठहरे रहे। अपनी पुत्री को वल्कल तथा मृगचर्म धारण की हुयी देखकर सभी रानियां भी रो पड़ी। वे परम शोकाकुल होकर काँपने लगी।

       तत्पश्चात अपनी उस समर्पित पुत्री सुकन्या से विदा लेकर तथा उसे वहीं छोड़कर चिंतित राजा मंत्रियों के साथ अपने नगर चले गए। 

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