गूगल से साभार चित्र
राजा शर्याति के सैनिकों के मलमूत्र के अवरोध की बात उन्हें ज्ञात हुयी तब राजा ने इस कष्ट को दूर करने पर विचार किया। कुछ समय सोचने के पश्चयात घर पर आकर अपने परिजनों तथा सैनिकों से अत्यंत व्याकुल हो पूछने लगे - किसके द्वारा यह नीच कार्य किया गया है ? इस सरोवर के पश्चिमी तट पर वन में महान तपस्वी च्यवन मुनि कठिन तपस्या कर रहे हैं। अग्नि के समान तेज वाले उन तपस्वी के प्रति किसी ने कोई अपकार अवश्य ही किया है। इसलिए हम सबको ऐसा कष्ट हुआ है। महा तपस्वी ,वृद्ध एवं श्रेष्ट महात्मा च्यवन का अवश्य ही किसी ने अनिष्ट कर दिया है। यह अनिष्ट जान बूझकर किया गया या अनजाने में इसका फल तो भोगना ही पड़ेगा।
इस घटना से चिंतित राजा शर्याति ने सब लोगों से पूछने के पश्चयात अपने बंधुओं से भी पूछा। समस्त प्रजा जन और अपने पिता को अत्यंत दुखी देखकर तथा अपने द्वारा उन छिद्रों में काँटा चुभाने की बात को सोचकर उस सुकन्या ने कहा - पिताजी वन में खेलती हुयी मैंने लताओं से घिरा हुआ दो छिद्रों वाला एक विशाल वाल्मीक देखा। उन छिद्रों से जुगनू की भांति तीव्र प्रकाशमान दो ज्योतियाँ मैंने देखी। तब हे महाराज !जुगनू की शंका करके मैंने उन छिद्रों में काँटा चुभो दिया।
हे पिताजी ! उस समय मैंने देखा की वह काँटा जल से भीगा हुआ था। और वल्मीक में से आहा - आहा की मंद - मंद ध्वनि मुझे सुनाई दी। पिताजी तब मैं आश्चर्य में पड़ गयी की यह क्या हो गया। मैं इस शंका से ग्रस्त हो गयी कि न जाने मेरे द्वारा उस वाल्मीक के मद में कौन सी वस्तु बिंध गयी।
सुकन्या का यह मधुर वचन सुनकर राजा शर्याति इस कृत्य को मुनि का अपमान समझ कर शीघ्रता पूर्वक उस वल्मीक के पास पहुंचे। वहां उन्होंने महान कष्ट में पड़े हुए परम तपस्वी च्यवन मुनि को देखा। तत्पश्चात उन्होंने मुनि के शरीर पर जमी हुयी विशाल बाँबी को हटाया।
इसके बाद राजा शर्याति ने दंड की भांति पृथ्वी पर गिर कर मुनि को प्रणाम करके उनकी स्तुति की और पुनः वे हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक उनसे कहने लगे - हे महाभाग ! मेरी पुत्री खेल रही थी उसी ने यह दुष्कर्म कर दिया है। हे ब्राह्मण -उस बालिका के द्वारा अनजाने में किये गए इस अपराध को आप क्षमा कर दें। मुनिगण क्रोध शून्य होते हैं ऐसा मैंने सुना है। अतेव आप इस समय बालिका का अपराध क्षमा कर दीजिये।
उनकी बात सुनकर च्यवन मुनि नम्रता पूर्वक खड़े उन राजा को अत्यंत दुखी जानकर कहने लगे -हे राजन ! मैं कभी भी लेशमात्र क्रोध नहीं करता। आपकी पुत्री के द्वारा पीड़ा पहुचाये जाने पर मैंने अभी तक आपको श्राप नहीं दिया है।
हे महीपते ! इस समय मुझ निर अपराध के नेत्रों में पीड़ा उत्पन्न हो रही है। मैं जनता हूँ की इस पाप कर्म के कारण आप कष्ट में पड़ गए हैं। भगवती के भक्त के प्रति घोर अपराध करके कौन सा व्यक्ति सुख पा सकता है।
चाहे साक्षत शंकर ही उसके रक्षक क्यों न हों। हे महिपाल ! मैं क्या करू ?मैं अँधा हो गया हूँ और बुढ़पे ने मुझे घेर रखा है। हे राजन ! अब मुझ अंधे की सेवा कौन करेगा ?
राजा ने कहा - हे मुनि श्रेष्ठ मेरे बहुत से सेवक दिन - रात आपकी सेवा करेंगे आप अपराध क्षमा करें। क्यूंकि तपस्वी लोग अत्यंत अल्प क्रोध वाले होते हैं।
च्यवन मुनि बोले - हे राजन ! मैं अँधा हूँ। अतः अकेला रहकर मैं तप करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ। क्या आपके वे सेवक सम्यक रूप से मेरा प्रिय कार्य कर सकेंगे ? हे राजन ! अदि आप क्षमा करने के लिए मुझसे कहते हैं तो मेरी वह बात मान लीजिये। मेरी सेवा के लिए कमल के समान नेत्रों वाली अपनी कन्या मुझे सौंप दीजिये। हे महराज ! मैं आपकी इस कन्या पर प्रसन्न हूँ। मैं तपस्या करूँगा और वह मेरी सेवा करेगी।
हे राजन ! ऐसा करने पर मुझे सुख मिलेगा। और आपका भी कल्याण होगा। मेरे प्रसन्न हो जाने पर आपके सैनिकों को भी सुख प्राप्त होगा। इसमें संदेह नहीं है। हे भूप ! मन में यह विचार करके आप कन्यादान कर दीजिये। इसमें आपको कोई दोष नहीं लगेगा। क्यूंकि मैं एक संयम शील तपस्वी हूँ।
मुनि की बात सुनकर राजा शर्याति घोर चिंता में पड़ गए। वे सोचने लगे की ,देव कन्या के तुल्य अपनी यह पुत्री उस अंधे ,कुरूप तथा बूढ़े मुनि को देकर मैं कैसे सुखी रह सकता हूँ। ऐसा अल्पबुद्धि तथा पापी कौन होगा जो शुभ तथा अशुभ का ज्ञान रखते हुए भी अपने सुख के लिए अपनी ही कन्या के सांसारिक सुख को नष्ट कर दे। यह अंधे और वृद्ध मुनि के साथ कैसे अपना जीवन व्यतीत करेगी। ऐसा विचार करके राजा शर्याति दुखी मन से अपने घर चले गए और अत्यंत विसाद ग्रस्त होकर उन्होंने मंत्रियो से मंत्रणा की।
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