गूगल से साभार चित्र

  इस प्रकार कुछ समय बीतने पर गंगाजी ने महाराज शांतनु से गर्भ धारण किया और यथा समय उन सुनयनी ने एक वसु को पुत्र रूप में जनम दिया। उन्होंने उस बालक को उत्पन्न होते ही तत्काल जल में फेंक दिया। इस प्रकार दूसरा तीसरे चौथे पांचवे और छठे तथा सातवें पुत्र के मारे जाने पर राजा सांतनु को बड़ी चिंता हुई
     यह मुझे त्याग कर चली जाएगी। मेरा आठवाँ  गर्भ भी इसे प्राप्त हो गया है यदि मैं इसे रोकता नहीं हूँ तो यह इसे भी जल में फेंक देगी। यह भी मुझे संदेह है कि भविष्य में कोइ और सन्तति  होगी अथवा नहीं        ।
     
       वंश की रक्षा के लिए मुझे कोई दूसरा यत्न करना ही होगा तदनन्तर यथा समय जब वह आठवाँ वसु पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। जिसने अपनी स्त्री के वशीभूत होकर वशिष्ठ की नंदिनी गाय का हरण कर लिया था ,तब उस पुत्र को देखकर राजा शांतनु गंगा जी के पैरों पर गिरते हुए कहंने लगे।

        हे शुचिस्मित मैं तुम्हारा दास हूँ मैं प्रार्थना करता हूँ मैं इस पुत्र को पालना चाहता हूँ अतः इसे जीवित ही मुझे दे दो तुमने मेरे सात सुन्दर पुत्रो को मार डाला किन्तु इस आठवें पुत्र की रक्षा करो मैं तुम्हारे पैरों पर पड़ा हूँ।
     
       हे परम !रूपवती इसके बदले तुम मुझसे जो मांगोगी मैं वह दुर्लभ वस्तु भी तुम्हें दूंगा अब तुम मेरे वंश की रक्षा करो वेदविद विद्वानों ने कहा है की पुत्र हीन मनुष्य की स्वर्ग में भी गति नहीं होती इसी कारण हे सुंदरी अब मैं इस आठवें पुत्र के लिए याचना करता हूँ।
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      राजा शांतनु केऐसा कहने पर भी जब गंगा उस पुत्र को लेकर जाने को उद्यत हुई तब उन्होंएने अत्यंत कुपित होकर उनसे कहा हे पापिन अब मैं क्या करू//?क्या तुम नरक से भी नहीं डरती ? तुम कौन हो ?लगता है तुम पापियों की पुत्री हो ,अब तुमजाहाँ चाहो वहां जाओ या रहो किन्तु यह पुत्र यहीं रहेगा पापिन !अपने वंश का अंत करने वाली ऐसी तुम्हें रखकर भी मैं क्या करूंगा ?

     राजा के ऐसा कहने पर उस नवजात शिशु को लेकर जाती हुई गंगा ने क्रोध पूर्वक उनसे कहा -पुत्र की   कामना वाली मैं भी इस पुत्र को  वन में ले जाकर पालूंगी। शर्त के अनुसार अब मैं चली जाऊँगी क्योंकि आपने अपने वचन तोडा है। हे राजन मुझे आप गंगा जानिये देवताओं कार्य संपन्न करने के लिए ही मैं यहां आयी थी।

      महात्मा वसिष्ठ ने प्राचीन काल में आठों वसुओं को शाप दिया था कि तुम सब मनुष्य योनि में जाकर जन्म लो तब चिंता से व्याकुल होकर आठों वसु मुझे वहाँ स्थित देखकर कहने लगे -हे अनघे !आप हमारी माता बने अतः हे नृप श्रेष्ठ उन्हें वरदान देकर मैं आपकी पत्नी बन गई। आप ऐसा समझ लीजिये कि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है

         वे सातों वसु तो आपके पुत्र बनकर ऋषि के शाप से विमुक्त हो गए। यह आठवां वसु कुछ समय तक आपके पुत्र रूप में विद्यमान रहेगा। अतः हे राजन!मुझ गंगा के द्वारा दिए हुए पुत्र को आप स्वीकार कीजिये। इसे आठवां वसु जानते हुए आप पुत्र सुख का भोग करें क्योंकि हे महाभाग !यह गांगेय बड़ा ही बलवान होगा। अब इसे मैं वहीं ले जा रहीं हूँ जहां मैंने आपका पति रूप से वरन कया था।

        हे राजन !इसे पालकर इसके युवा होने पर मैं पुनः आपको दे दूंगी क्योंकि मात्र हीन बालक न जी पाता है और न सुखी रहता है ऐसा कहकर उस बालक को लेकर गंगा वहीं अंतर्धान हो गयीं। राजा भी अत्यंत दुखित होकर अपने राजभवन में रहने लगे।

        महाराज शांतनु स्त्री तथा पुत्र के वियोग में महान कष्ट का सदा अनुभव करते हुए भी किसी प्रकार राज्य कार्य संभालने लगे।         



                               

                                     
                                   


                                 
      

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