सुमेरु पर्वत के शिखर पर ही इंद्रलोक ,ब्रह्मलोक ,सेमिनीपुरी ,सत्यलोक ,कैलाश और बैकुण्ठ ये सभी लोक प्रतिष्ठित है। बैकुण्ठ को ही वैष्णवपद कहा जाता है। 

       महाराज रेवत  सुन्दर नेत्रों वाली पुत्री रेवती को साथ में लेकर ब्रह्मलोक पहुंच  गए। उस समय गन्दर्भ लोगों  का संगीत हो रहा था। वे अपनी कन्या के साथ कुछ देर तक सभा में रूककर संगीत सुनते हुए आनंद लेते रहे। गन्दर्भो का संगीत समाप्त हो जाने पर परमेश्वर ब्रह्मा जी को प्रणाम कर उन्हें कन्या रेवती को दिखाकर अपना आशय प्रकट किया। 

     राजा बोले- हे देवेश ! मैं अपनी पुत्री किसको प्रदान करूँ ? यही पूछने के लिए आपके पास आया हूँ। अतः आप इसके योग्य वर बतायें। मैंने उत्तम कुल में उत्पन्न बहुत से राजकुमारों को देखा है। किन्तु किसी में भी मेरा मन स्थिर नहीं होता है। इसलिए देवेश ! वर के विषय में आपसे पूछने के लिए यहाँ आया हूँ। आप किसी योग्य राजकुमार के विषय में बताइये जो कुलीन ,बलवान, समस्त लक्षणों से संपन्न ,दानी तथा धर्मपरायण हो। 

     ब्रह्मा जी बोले - हे राजन ! आपने अपने हृदय में जिन राजकुमारों को वर के रूप में देखा था ,वे सब के सब काल कवलित हो चुके हैं। इस समय वहाँ सत्ताईसवाँ द्वापर चल रहा है। आपके सभी वंशज मृत हो चुके हैं और दैत्यों ने आपकी पुरी भी नष्ट कर डाली है। इस समय वहाँ चन्द्रवंशीय राजा शासन कर रहे हैं। अब मथुरा नाम से प्रसिद्ध उस पुरी के अधिपति के रूप में उग्रसेन विख्यात हैं। उन महाराज उग्रसेन का एक कंश नामक पुत्र हुआ जो महान बलशाली तथा देवताओं से बैर रखने वाला था। राजाओं में सबसे अधिक अभिमानी दानववंशी कंश ने अपने पिता को भी कारागार में डाल दिया और स्वयं राज्य करने लगा। 

     तब पृथ्वी असहाय भार से व्याकुल होकर ब्रह्मा  के शरण में गयी। दुष्ट राजाओं तथा उनके सैनिकों के अत्याचार से पृथ्वी के अति व्याकुल होने पर भगवान् का अंशवतार कमल के समान नेत्र वाले वशुदेव नंदन श्री कृष्ण देवी स्वरूपा देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए।  वे साक्षत नारायण मुनि ही थे। 

      उन सनातनधर्म  पुत्र नारायण मुनि ने बद्रिकाश्रम में गंगा जी के तट पर अत्यंत कठोर तपस्या की थी। वे ही यदुकुल में अवतार लेकर वासुदेव नाम से विख्यात हुए। हे महाभाग ! उन्ही वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने पापी कंश का संहार किया और इस प्रकार उस दुष्ट राजा को मारकर उन्होंने उसके पिता उग्रसेन को सम्पूर्ण राज्य दे दिया। कंश का ससुर जरासंध महान बलशाली तथा पापी था।  वह अत्यंत क्रोधित हो मथुरा आ कर श्री कृष्ण के साथ युद्ध करने लगा। अंत में श्री कृष्ण ने उस महाबली जरासंध को युद्ध में जीत लिया। तब उसने सेना सहित काल यवन को कृष्ण के साथ युद्ध करने के लिए भेजा। 

      महापराक्रमी कालयवन को सेना सहित आता सुन श्री कृष्ण मथुरा छोड़कर द्वारिका चले गए। भगवान श्री कृष्ण ने कुशल शिल्पियों के द्वारा बड़े - बड़े दुर्ग तथा बाजारों से सुशोभित उस नष्ट पुरी का पुनः निर्माण कराया तथा श्री कृष्ण ने उग्रसेन को वहां का अपना आज्ञाकारी राजा बनाया।   तत्पश्चत श्री कृष्ण ने उस द्वारिकापुरी में यादवों को भली -भांति बसाया। इस समय वे वासुदेव अपने बंधु बांधवों के साथ उस द्वारिकापुरी में रह रहे हैं। 

      उनके बड़े भाई बलराम हैं। हल तथा मूसल को आयुध के रूप में धारण करने वाले वे सुरवीर बलराम शेष के अंशवतार कहे जाते हैं। वे ही आपकी  कन्या के लिए उपयुक्त वर हैं अब आप वैवाहिक विधि के अनुसार शीघ्र ही बलराम को कमल के समान नेत्रों वाली अपनी कन्या रेवती सौंप दीजिये। हे नृप श्रेष्ठ उन्हें कन्या प्रदान कर आप तप करने के लिए  बरिकाश्रम में चले जाइये। क्यूंकि तप मनुष्यों की सारी अभिलाषाएं पूर्ण कर देता है और अंतःकरण को पवित्र बना देता है। 

       श्री ब्रह्मा जी से यह आदेश पाकर  राजा रेवत अपनी कन्या के साथ शीघ्र ही द्वारिका चले गए। वहाँ उन्होंने शुभ लक्षणों से संपन्न अपनी पुत्री सौंप दी।  

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