मुनि के ऐसा कहने पर कि हे  सुंदरी ! इस कार्य में देवताओं का ही कोई कार्य छुपा हुआ है। इसी कारण मैं तुम्हारे ऊपर कामाशक्त हुआ हूँ। ऐसा कहकर अपने वश में आयी हुयी उस कन्या के साथ संसर्ग करके मुनि श्रेष्ठ पराशर तत्काल यमुना नदी में स्नान कर वह से शीघ्र चले गए। वह साध्वी मत्स्यगंधा  भी तत्काल गर्भवती हो गयी। यथा समय उसने यमुना जी के द्वीप में दूसरे कामदेव के तुल्य एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। 

          उस पुत्र ने पैदा होते ही अपनी माता से कहा - हे माता ! मन में तपस्या का निश्चय करके ही अत्यंत तेजस्वी मैं गर्भ में प्रविष्ट हुआ था। हे माते ! अब आप अपनी इच्छा के अनुसार कहीं भी चली जाएँ और मैं भी यहाँ से तप करने के लिए जा रहा हूँ। हे माता ! आपके स्मरण करने पर ,मैं अवश्य ही दर्शन दूंगा। हे माता ! जब कोई उत्तम कार्य आ पड़े तब आप मुझे स्मरण कीजिये। मैं शीघ्र ही उपस्थित हो जाऊंगा। आप चिंता छोड़ सुखपूर्वक रहिये। मत्स्यगंधा ने ( सत्यवती ) बालक को यमुना जी में जन्म दिया था। अतः वह बालक " द्वैपायन " नाम से विख्यात हुआ। विष्णु भगवान के अंशावतार होने के कारण वह बालक उत्पन्न होते ही शीघ्र बड़ा हो गया। तथा अनेक तीर्थों में स्न्नान करता हुआ उत्तम तप करने लगा। 

         इस प्रकार पराशर मुनि के द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन उत्पन्न हुए और उन्होंने ही कलयुग को आया जानकर वेदों को अनेक शाखाओं में विभक्त किया। वेदों का विस्तार करने के कारण ही उन मुनि का नाम व्यास पड़ गया। उन्होंने ही विभिन्न पुराण सहिताओं तथा श्रेष्ठ महाभारत की रचना की। उन्होंने ही वेदों के अनेक विभाग करके उसे अपने शिष्यों - सुमन्तु , जैमिनी ,पैल ,वैशम्पायन ,असित ,दैवल और अपने पुत्र शुकदेव जी को पढ़ाया। 

        किसी विशेष कारण से ही मुनि व्यास का तथा मछली के उदर से सत्यवती का जन्म ,पराशर मुनि के साथ उनका सहयोग फिर राजा शंतुनु के साथ उनका विवाह हुआ। अन्यथा मुनि पराशर का चित्त कामशक्त ही क्यों होता। जो श्रुति परायण मनुष्य इस शुभ आख्यान को सुनता है वह दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है  तथा सर्वदा सुखी रहता है। 

      इच्वाकु कुल में महाविष नाम के एक सत्यवादी धर्मात्मा और चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुए। उन बुद्धिमान राजा ने हजारों अश्वमेघ तथा सैकड़ो वाजपेय यज्ञ करके इंद्र को संतुष्ट किया और स्वर्ग प्राप्त किया। 

     एक बार राजा  महाविष  ब्रह्म लोक गए। वहां प्रजापति की सेवा के लिए सभी देवता आये हुए थे। उस समय देव नदी गंगा जी भी ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित थी। उस समय तीव्रगामी पवन ने उनका वस्त्र उड़ा दिया। सभी देवता अपना सिर नीचा किये उन्हें बिना देखे खड़े रहे। किन्तु राजा महाविष निसंख भाव से उनके ओर देखते रह गए। 

       उन गंगा नदी ने भी राजा को अपने पर प्रेमासक्त जाना। उन दोनों को इस प्रकार मुग्ध देखकर ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए और शीघ्र ही उन दोनों को श्राप दे दिया। - हे राजन ! मनुष्य लोक में तुम्हारा जन्म होगा। वहाँ  जब तुम अधिक पुण्य  एकत्र कर लोगे तब पुनः स्वर्ग लोक में आओगे। इसी प्रकार ब्रह्मा जी ने गंगा जी को श्राप दे दिया। 

       इस प्रकार वे दोनों दुखी मन से ब्रह्मा जी के पास से शीघ्र ही चले गए। राजा मन में सोचने लगे की इस मृत्यु लोक में कौन ऐसा राजा है जो धर्मपरायण है। ऐसा विचार कर उन्होंने पुरुवंशीय राजा प्रतीप को ही पिता बनाने का निश्चय कर लिया। इसी बीच आठों वसु अपनी - अपनी स्त्री के साथ विहार करते हुए ,महर्षि वसिष्ट के आश्रम पर पहुंचे।  उन पृथु आदि पशुओं में द्यौ नामक एक श्रेष्ठ वसु थे। उनकी पत्नी ने नंदिनी गाय को देखकर अपने पति से पूछा -कि यह सुन्दर गाय किसकी है?            

                                                                                                                            आगे भी शेष ......... 

Comments

Popular posts from this blog