श्रेष्ठ वसु की पत्नी के द्वारा नंदिनी गाय के विषय में पूछे जाने पर उनके पति ने कहा - हे सुंदरी! यह महर्षि वसिष्ठ जी की गाय है। इस गाय का दूध स्त्री या पुरुष जो कोई भी पीता  है उसकी आयु दस हजार वर्ष की हो जाती है। और उसका यौवन सर्वदा बना रहता है। यह सुकर उस सुंदरी स्त्री ने कहा - मृत्यु लोक में मेरी एक सखी है, वह राजर्षि उशीनर की परम सुंदरी कन्या है। उसके लिए अत्यंत सुन्दर तथा सब प्रकार की कामनाओं को देने वाली इस गाय को बछड़े सहित अपने आश्रम में ले चलिए। जब मेरी सखी इसका दूध पीयेगी तब वह निर्जरा एवं रोग रहित होकर मनुष्यों में एक मात्र अद्वितीय बन जाएगी। यह सुनकर उन श्रेष्ठ वसुओं ने मुनि का अपमान करके नंदिनी गाय का अपहरण कर लिया। 

      महा तपस्वी वसिष्ठ जी  ने जब अपने आश्रम में बछड़े सहित नंदिनी को नहीं देखा तब उन्होंने उसे वनों एवं गुफाओं में देखा। जब वह गाय नहीं मिली तब मुनि ने ध्यान योग से उसे वसुओं के द्वारा हरी गयी जानकर अत्यंत कुपित हुए। वसुओं ने मेरी अवमानना करके गाय चुरा ली है। वे सभी मानव यौनि में जन्म ग्रहण करेंगे। इस प्रकार धर्मात्मा वसिष्ठ जी ने उन बसुओं को श्राप दे दिया। यह जानकर वे ऋषि वसिष्ठ जी के पास पहुंचे और उन्हें प्रसन्न करते हुए वे सभी वसु उनके शरणागत हो गए। तब मुनि वसिष्ठ जी ने उनसे कहा - तुम लोगो में से सात वसु एक - एक वर्ष के अंतराल से ही श्राप से मुक्त हो जाओगे। परन्तु जिसने मेरी प्रिय नंदिनी का अपहरण किया है वह वसु मनुष्य शरीर में ही बहुत दिनों तक रहेगा। 

       उन अभिसप्त वसुओं ने मार्ग में जाती हुयी नदियों में उत्तम गंगा जी को देखकर प्रणाम पूर्वक कहा - हे देवी ! अमृत पीने वाले  हम देवता मानव कुक्षि से कैसे उत्पन्न होंगे। अतः हे नदियों में श्रेष्ठ ! आप ही मानुषी बनकर हम लोगो को जन्म दें। पृथ्वी पर संतुनु नामक एक राजर्षि है आप उन्हीं की भार्या बन जाएँ और हमें क्रमश जन्म लेने पर आप जल में छोड़ती जाएँ। आपके ऐसा करने से हम लोग भी श्राप से मुक्त हो जायेंगे। गंगा जी ने जब उनसे तथास्तु कह दिया तब वे वसु अपने लोक में चले गए। 

       उस समय राजा महाविष ने राजा प्रतीप के पुत्र के रूप में जन्म लिया। उन्ही का नाम संतुनु पड़ा। जो सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा राजर्षि हुए। महाराज प्रतीप ने परम तेजस्वी भगवन सूर्य की आराधना की। उस समय जल में एक परम सुन्दर स्त्री निकल पड़ी और वह तुरंत ही महाराज के शाल वृक्षों के विशाल दाहिने जंघा पर विराजमान हो गयी। उस स्त्री से राजा ने पूछा - हे वरानने तुम मुझसे बिना  पूछे ही मेरे शुभ दाहिने जांघा पर क्यों बैठ गयी।  उस सुंदरी ने कहा - हे कुरुश्रेष्ठ मैं जिस कामना से आपके अंक में बैठी हूँ उस कामना वाली मुझे आप स्वीकार करें। राजा ने कहा - मैं किसी सुंदरी परस्त्री को काम की इच्छा से नहीं स्वीकार करता। तुम मेरे दाहिने जंघा पर आकर बैठ गयी हो। उसे तुम पुत्रों तथा पुत्र वधु  का स्थान समझो। अतः हे कल्याणी ! मेरे मनोवांछित पुत्र के उत्पन्न होने पर तुम मेरी पुत्र वधु हो जाओ।  तुम्हारे पुण्य से मुझे पुत्र प्राप्त हो जायेगा। इसमें संसय नहीं है। 

         वह दिव्य दर्शन वाली कामिनी तथास्तु कहकर चली गयी। और उस स्त्री के विषय में सोचते हुए राजा प्रतीप भी  अपने घर चले गए। समय बीतने पर पुत्र के युवा होने पर वन जाने की इच्छा वाले राजा ने अपने पुत्र को वह समस्त पूर्व वृतांत कह सुनाया। सारी  बात बताकर राजा ने अपने पुत्र से कहा - यदि वह सुंदरी बाला तुम्हें कभी वन में मिले और अपनी अभिलाषा प्रकट करे तो उस मनोरमा को स्वीकार कर लेना। तथा उससे मत पूछना की तुम कौन हो ?यह मेरी आज्ञा है। उसे अपनी धर्म पत्नी बनाकर तुम सुखी रहोगे। 

         इस प्रकार अपने पुत्र को आदेश देकर महाराज प्रतीप प्रसन्नता के साथ उन्हें सारा राज्य - वैभव सौंप कर वन को चले गए।  वहाँ जाकर वे तप करके तथा आदि शक्ति भगवती जगदम्बिका की आराधना करके अपने तेज से शरीर छोड़कर स्वर्ग चले गए। महातेजस्वी राजा संतुनु ने सार्वभौम राज्य प्राप्त किया और धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे।  

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