गूगल से साभार चित्र
एक समय धन के लोभी हैहय वंशी क्षत्रिय भार्गव वंश की स्त्रियों को अपार दुःख पहुंचने लगे। तब वे भयभीत होकर और अत्यंत घबराकर जीवन से निराश हो हिमालय पर्वत पर चली गयी। वही नदी के तट पर उन्होंने मिट्टी की गौरी देवी की प्रतिमा बनाकर स्थापित की और निराहार रहकर उनकी उपासना करने लगी। उन्हें अपनी मृत्यु निश्चित जान पड़ती थी। उस समय श्रेष्ट स्त्रियों के पास स्वप्न में देवी पधारी और उनसे बोली - तुम लोगों में से किसी एक स्त्री की जाँघ से एक पुरुष उत्पन्न होगा। मेरा अंशभूत यह पुरुष तुम लोगों का कार्य संपन्न करेगा। यों कहकर भगवती जगदम्बा अंतर ध्यान हो गयी।
नींद टूटने पर उन सभी स्त्रियों के मन में बड़ा हर्ष हुआ। उनमे से एक चतुर स्त्री ने गर्भ धारण किया। उसका हृदय भी भयभीत था। वंश वृद्धि के लिए वह वहां से भाग चली। क्षत्रियों ने उसे भागते हुए देख लिया। उन्होंने देखा किन्तु तेज से उस ब्रह्माणी का मुख मण्डल चमक रहा है। तब वे उसके पीछे दौड़े और कहने लगे शीघ्र ही इस नारी को पकड़ो और मार डालो। क्यूंकि गर्भ धारण करके यह यहाँ से भाग रही है। इस प्रकार कहते हुए वे तलवार हाथ में लेकर उस स्त्री के निकट पहुंचे । भय से घबराई हुयी वह स्त्री रोने लगी।
गर्भ में रहने वाले बालक ने जब सुना - माता रो रही है। इस दयनीय अवस्था में कोई भी उनका रक्षक नहीं है। क्षत्रियों से संतप्त इसके नेत्रों से जलधारा बह रही थी। मनो गर्भवती हिरणी शेर के पंजे में पड़ गयी हो। आँखों में आँसू भरकर कांपती हुयी। माता को देखकर गर्भ स्थित बालक के क्रोध की सीमा नहीं थी। वह जाँघ चीरकर तुरंत बाहर निकल आया ,जैसे की कोई दूसरा सूर्य प्रकट हो गया हो। उस मनोहर बालक ने अपने तेज से तुरंत ही क्षत्रियों के नेत्र की ज्योति हर ली। उस बालक को देखते ही वे सब के सब क्षत्रिय अंधे जैसे हो गए।
तब सबने यह विचार किया कि यह विचित्र परिस्थिति किस कारण सामने आ गयी। हम सब इस बालक को देखते ही अंधे हो गए। इसमें अवश्य इस ब्रह्माणी का ही प्रभाव है। क्यूंकि इसके पास सतीत्व का महान बल है। पतिव्रताओं का संकल्प कभी व्यर्थ नहीं हो सकता यों सोचकर वे दृष्टिहीन हैहय वंशी क्षत्रिय उस पतित्रता ब्रह्माणी के शरणागत हो गए। और दोनों हाथ जोड़कर भय से घबराई उस ब्रह्मणी को प्रमाण किया और साथ ही नेत्र ज्योति वापस पाने के लिए उस ब्रह्माणी से प्रार्थना भी की - सुभागे ! माता ! अब तुम प्रसन्न हो जाओ। पापमयी बुद्धि हो जाने के कारण हम क्षत्रियों से महान अपराध हुआ है। इसी के फलस्वरूप हम सब अंधे हो गए। तुम अद्भुत तपोबल से संपन्न हो अतः हम तुम्हारा सामना नहीं कर सकते। अब हम तुम्हारी शरण में आये हैं। अन्धा हो जाना मरने से भी अधिक कष्ट प्रद है अतः हमें नेत्र ज्योति प्रदान करने की कृपा करो। हम सब क्षत्रियों को अपना सेवक बना लो। फिर हम दुर्बुद्धि वाले शांत होकर अपने स्थान पर चले जायेंगे। हमने जो अपराध किया है उसे क्षमा करो।
हैहय वंशी क्षत्रियों की उपर्युक्त बातें सुनकर ब्रह्माणी बहुत ही आश्चर्य चकित हुयी। हाथ जोड़कर खड़े नेत्र हीन उन क्षत्रियों को आश्वासन देकर क्षमाशील ब्रह्माणी ने कहा - मैं तुम पर कुपित नहीं हूँ। इस समय यह जो भृगुकुल का दीपक बालक मेरी जाँघ से उत्पन्न हुआ है। तुम इसी के कोपभाजन बने हो। रोष में आकर इस बालक ने ही तुम्हारे नेत्र स्तंभित कर दिए है। भृगुवंश के वंशज निरपराधी , धर्मात्मा तथा तपस्वी थे। जब तुम इन्हें मार रहे थे। तभी गर्म में यह बालक आ गया था। इसे मैं सौ वर्षों से धारण किये रही हूँ। यह बालक गर्भ से ही सुशिक्षित हो चुका है। मेरा यह पुत्र भगवती जगदम्बा की कृपा से पैदा हुआ है। इसी के दिव्य तेज से तुम्हारी आँखें देखने में असमर्थ हो गयी है। अतः तुम लोग मेरे इस पुत्र से ही नम्रता के साथ नेत्र पाने की प्रार्थना करो। यदि यह प्रसन्न हो गया तो तुम्हें नेत्र ज्योति अवश्य प्राप्त होगी।
वह बालक एक श्रेष्ठ मुनि के रूप में विराजमान था। ब्रह्माणी की बात सुनकर हैहय संज्ञक क्षत्रियों ने उसके चरणों में मस्तक झुका कर नम्रता के साथ नेत्रों में ज्योति पाने की प्रार्थना की। इससे मुनिकुमार प्रसन्न होकर बोला - राजाओ ! ठीक है तुम मेरी कही हुयी बात पर विश्वास कर घर लौट जाओ। जो देवों की इच्छा है वही कार्य होता है। इस विषय में विद्वानों को शोक नहीं करना चाहिए। जितने क्षत्रिय है वे सब क्रोध त्याग कर आनंद पूर्वक अपने अपने घर जायें।
इस प्रकार उस तेजस्वी बालक के उपदेश देने पर वे हैहय संज्ञक क्षत्रिय आज्ञा लेकर इच्छानुसार अपने घर चले गए। अब उनके नेत्रों में पूर्ववत ज्योति आ गयी थी। ब्रह्माणी भी तेजस्वी एवं पृथ्वी के रक्षक रूप में प्रकट हुए उस दिव्य बालक को लेकर अपने आश्रम पर लौटी और बड़ी सावधानी के साथ उसका लाल पोषण करने लगी। लोभ के वशीभूत होकर क्षत्रियों ने जो कर्म कर डाला वह अवश्य ही घोर पाप था।
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