गूगल से साभार चित्र
        ब्रह्मा और विष्णु बोले - सर्व सृष्टि कारिणी , परमेश्वरी ,सत्यविज्ञानरूपा ,नित्या ,आद्याशक्ति ! आपको हम प्रणाम करते है। आप वाणी से परे हैं ,निर्गुण और अति सूक्ष्म है। ज्ञान से परे और शुद्ध विज्ञान से प्राप्य हैं। आप पूर्णा ,शुद्धा ,विश्वरूपा ,वंदनीया तथा विश्ववन्धा है। आप सबके अन्तः कारण  में वास करती हैं एवं सारे संसार का पालन करती हैं। दिव्य स्थान निवासिनी आप भगवती महाकाली को हमारा प्रणाम है। महामाया स्वरूपा आप महामयी तथा माया से अतीत हैं। आप भीषण श्याम वर्ण वाली भयंकर नेत्रों वाली परमेश्वरी  हैं। आप सिद्धियों से संपन्न विद्या रूपा  समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करने वाली तथा सृष्टि का संहार करने वाली हैं। आप महाकाली को हमारा नमस्कार है।  दोनों संध्याएँ आपकी दोनों भृगुटियाँ हैं। आप विश्व रूपा हैं। वायु आपका श्वास हैं। लोकपाल आपके बाहु हैं और संसार की सृष्टि, स्थिति तथा संहार आपकी लीला हैं। पूर्णे ! ऐसी सर्वस्वरूपा आप महाकाली को हमारा प्रणाम है। आप ब्रह्म विद्या स्वरूपा हैं। ब्रह्म विज्ञान से ही आपकी प्राप्ति संभव है।  सर्वस्वरूपा अनन्तस्वरूपिणी माता दुर्गे !  आप हम पर प्रसन्न हों। 

       इस प्रकार उन दोनों के स्तुति करने पर भगवती महाकाली प्रसन्न हुयी और उन्होंने महाकाल के साथ उन्हें पुनः दर्शन दिए। महाभाऊ भगवान शंकर भी महाकाल के साथ उस शरीर से पुनः बाहर निकलकर रजत पर्वत के समान आभा से युक्त हो सुशोभित होने लगे। उन्होंने जगदम्बा से कहा कि इंद्र भी भक्ति भाव से आपके दर्शन हेतु आये हैं और नगर के बाहर प्रतीक्षा में खड़े हैं। माहेश्वरी ! आप आज्ञा दें तो आपके पास आकर आपके इस दिव्य लक्षणों से संपन्न श्रेष्ठ विग्रह के उन्हें दर्शन करा दें। महामते ! भगवान शंकर के ये वचन सुनकर जगदम्बिका महाकाली ने महादेव से कहा  -

     देवी बोली महादेव ! यदि आप देवराज इंद्र को मेरे दिव्य लोक में लाना चाहते है तो सुरश्रेष्ठ ! आप ऐसा करें दधीचि की हड्डियाँ ग्रहण करने का उसका जो ब्रह्म हत्या रूपी महापाप था वह तो मेरे धाम के बाहर आने से ही प्रायः नष्ट हो गया है।  महामते ! जो कुछ बचा है उसके शमन के लिए मेरे  इस अंतर्ग्रह के थोड़े से रजकण उन्हें दे दें। तदनन्तर पाप रहित हुआ इंद्र जब मेरे समीप आएगा तब मेरे दुर्लभ दर्शन उसे प्राप्त हो सकेंगे।  

       महाकाली से इस प्रकार आदेश पा कर महेश्वर शिव ने वहां जाकर महादेवी के अंतपुर की रज इंद्र को देकर उसे दिव्य लोक में प्रवेश कराया।  इंद्र के महादेवी के अंतपुर में प्रवेश कर के पद - पद पर पृथ्वी तल पर गिर कर  जगदम्बिका के चरणों में प्रणाम किया। इंद्र भगवान सदा शिव के साथ भगवती के भवन के द्वार पर आये और उन्होंने देव दुर्लभ त्रिलोक्य जननी को देखकर भूमि पर दंड की भांति गिर कर उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चत सुरश्रेष्ठ इंद्र ने उठ कर वेद शास्त्रों में वर्णित स्तोत्रों से उन जगत वन्धा महाकाली का स्तवन किया। तत्पश्च्यात माहेश्वरी को पुनः प्रणाम कर ब्रह्मा आदि श्रेष्ट देवगण अपने - अपने लोक को चले गए। 

        जो मनुष्य भक्ति भाव से प्रयत्न पूर्वक इस आख्यान का पाठ करता है या सुनता है उसके ब्रह्म हत्या जनित पाप नहीं रहते। उसे सौ अश्व मेघ यज्ञ से होने वाले महापुण्य की प्राप्ति होती है। तथा स्वास्थ्य ,अपार संपत्ति और पुत्र -पौत्र आदि सुख प्राप्त होता है। उसके शंकट तुरंत नष्ट हो जाते हैं और शीघ्र ही उसकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। उसे शत्रुओं से किसी प्रकार का भय नहीं रहता। और जगदम्बा की कृपा से संग्राम में उसकी सदा विजय होती है।  

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