गूगल से साभार चित्र 

         इस प्रकार भगवती से वर पाकर देवता तथा  मुनि वृत्रासुर के श्रेष्ठ स्थान पर गए। और वृत्रासुर के समीप जाकर प्रिय वचन कहने लगे। उन्होंने कपट भरी बड़ी मधुर तथा सरस वाणी में वृत्रासुर को संधि करने के लिए प्रसन्न कर लिया। 

       उनकी बात सुनकर वृत्रासुर ने कहा - महाभाग ! सूखे अथवा गीले अस्त्र ,पत्थर तथा भयंकर वज्र से दिन में या रात में देवताओं सहित इंद्र मुझे न मारें। इसप्रकार की शर्त पर इनके साथ संधि की जा सकती है। अन्यथा संधि बिलकुल असंभव है। तदनन्तर उन्होंने वृत्रासुर से कहा - बहुत ठीक ऐसा ही होगा। इंद्र ने  आकर सारी शर्तों को स्वीकार  कर लिया। तब से वृत्रासुर इंद्र की बातों पर विश्वास करने लगा। इस प्रकार की मित्रता हो जाने पर वृत्रासुर के मन में बड़ी प्रसन्नता हुयी। फिर भी वृत्रासुर को मरने की इच्छा इंद्र के मन में बानी हुयी थी। 

       एक समय की बात है ,इंद्र के प्रति पूर्ण विश्वास करने वाले अपने पुत्र वृत्रासुर को बुलाकर त्वस्ता ने उससे कहा - महाभाग ! मैं तुम्हारे हित  की बात कहता हूँ सुनो - जिससे एक बार बड़ा बैर हो चुका हो उसके  प्रति कभी किसी प्रकार भी विश्वास नहीं करना चाहिए। इंद्र तुम्हारा पूर्व बैरी है। दूसरों से डहा करने की वृति उसके मन से कभी अलग नहीं हो सकती है।  उसके मन में सदा पाप बुद्धि बानी रहती है। बेटा ! किसी प्रकार भी इस इंद्र के प्रति विश्वास मत करना। पुत्र ! एक बार पाप कर चूका है। उसे फिर दूबारा  पाप करने में क्या संकोच होगा । 

       इस प्रकार त्वस्ता ने वृत्रासुर को बार - बार समझाया। किन्तु मौत के सिर पर सवार हो जाने पर उसने उन बातों पर ध्यान नहीं दिया। 

       एक समय इंद्र ने वृत्रासुर को समुद्र तट पर देखा। उस समय भयंकर संध्या काल की वेला था। तदनन्तर महात्माओं ने जो वर दिया था वे बातें इंद्र के ध्यान में आ गयी। उसने सोचा इस समय भयंकर संध्या काल उपस्थित है। इसे न रात माना जायेगा और न दिन। अब इसी अवसर पर शत्रु को मार डालना चाहिए - यहाँ निर्जन स्थान में वह अकेला ही मिल गया है। इससे बढ़कर उपयुक्त समय और कौन सा होगा। परन्तु उसके मन में चिंता उठने लगी कि इस शत्रु को मैं कैसे मारु ? क्यूंकि यह अजेय है। 

        उसी समय इंद्र की दृष्टि समुद्र में बहते हुए पानी के फेन पर पड़ी। वह फेन ऐसा जान पड़ता था की मानो पर्वत का टुकड़ा हो। उसने सोचा यह फेन न सूखा है और न गीला ही।  इसे शस्त्र भी नहीं कहा जा सकता है। फिर तो  इंद्र ने उस फेन को हाथ में उठा लिया। साथ ही अपार श्रद्धा करते हुए ,उन्होंने परमाशक्ति भगवती को ध्यान का लक्ष्य बनाया। 

          चिंतन करते ही  भगवती वहाँ पधारी और उन्होंने उस फेन में अपना अंश  स्थापित कर दिया। भगवान विष्णु तो वज्र में प्रवेश कर ही चुके थे। उस वज्र को फेन से ढक दिया गया। इंद्र ने ऐसे फेन युक्त वज्र को वृत्रासुर पर फैंका। उसके लगते ही वज्र से कटे हुए पर्वत की तरह वह दानव एकाएक जमीन पर गिर पड़ा और उसी क्षण उसके प्राण निकल गए।  अब इंद्र के आनंद की सीमा न रही। 

          शत्रु का नाश हो जाने पर इंद्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ सभी देवताओं को एकत्रित किया। और वे उन भगवती जगदम्बा की आराधना में  संलग्न गए। जिनकी कृपा से शत्रु को मारने की सफलता प्राप्त की थी। अनेक प्रकार के स्त्रोतों का उच्चारण कर वे  देवी को प्रसन्न करने लगे। 

       पद्यरागमणि से भगवती की मूर्ति बनाकर उसे अपने दिव्य उपवन में स्थापित कराया। तभी से श्री देवी ,देवताओं की कुल देवी हो गयी। त्रिलोकी में सर्वाधिक आदर पाने वाले भगवान विष्णु की भी इंद्र ने पूजा की। वृत्रासुर के मारे जाने पर देवगण प्रसन्न हो गए। 

       

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