गूगल से साभार चित्र 
    

         ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा माता ! शिवसुन्दरी ! आप तीनो लोको की माता हैं और शिवजी पिता है तथा ये सभी देवगण आप के बालक हैं। अपने को आप का शिशु मानने के कारण देवताओं को आप से कोई भय नहीं है। देवी ! आप की जय हो। गौरी ! आप तीनो लोको में लज्जा रूप से व्याप्त हैं। अतः पृथ्वी की रक्षा करें। और हम लोगो पर प्रसन्न हों। 

     विश्व जननी ! आप सर्वात्मा हैं। और आप तीनो गुणों से रहित ब्रह्म है ,अहो , अपने गुणों के वसीभूत होकर आप ही स्त्री तथा पुरुष का स्वरूप धारण  करके संसार में इस प्रकार की क्रीड़ा करती है और लोग आप जगत जननी को कामदेव के विनाशक परमेश्वर शिव की रमणी कहते है। 

       तीनो लोको को सम्मोहित करने वाली शिवे ! आप अपनी इच्छा के अनुसार अपने अंश से कभी पुरुष रूप में शिव बन जाती हैं और स्वयं स्त्री रूप में विद्यमान रहकर उनके साथ विहार करती हैं। अम्बिके ! वही आप अपनी लीला से कभी पुरुष रूप में कृष्ण का रूप धारण कर लेती हैं और उन में शिव की परिभावना कर स्वयं कृष्ण की पटरानी राधा बनकर उनके साथ रमण करती हैं। 

       जगत की रक्षा करने वाली देवेश्वरी माता प्रसन्न होईये और पृथ्वी की रक्षा के लिए अब इस लीला विलास से विरत हो जाइये। 

        विदल और उत्पल नाम के दो महा दैत्य थे। उन्होंने ब्रह्मा जी से किसी पुरुष के हाथों मृत्यु न होने का वर प्राप्त किया था।  तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से अपना  दुःख सुनाया। उनकी कष्ट कहानी  सुन कर ब्रह्मा जी ने कहा की तुम  शिवा सहित शिव की स्तुति करो। वे दोनों दैत्य निश्चय ही देवी के हाथों मारे जायेंगे। शिव सहित शिवा ही तुम्हारा कल्याण  करेंगी।

         देवों से  यू कहकर ब्रह्मा जी शिवजी का स्मरण करने लगे। तब देव गण भी प्रसन्न होकर अपने धाम लौट गए। एक समय नारद जी के द्वारा माता पार्वती जी के सौंदर्य की प्रसंसा सुन कर वे दोनों दैत्य उनका अपहरण करने की बात सोचने लगे और जहाँ पार्वती जी मनोरंजन कर रही थी वहां जा कर आकाश में विचरने लगे। वे दोनों घोर दुराचारी थे। उनका मन अत्यंत चंचल हो रहा था। वे गणों का रूप धारण करके अम्बिका के निकट आये। 

         तब दुष्टों का संहार करने वाले शिव ने अवेहलना पूर्वक उनकी और देखकर उनके नेत्रों में प्रकट हुयी चंचलता के कारण तुरंत उन्हें पहचान लिया।  फिर तो सर्वव्यापी महादेव ने दुर्गति नाशिनी दुर्गा को कटाक्ष द्वारा सूचित कर दिया कि ये दोनों दैत्य हैं गण नहीं। तब पार्वती जी ने अपने स्वामी महाकौतुकी परमेश्वर शंकर के नेत्र संकेत को समझ लिया। 

           तदनन्तर सर्वज्ञ शिव की अर्धांगिनी पार्वती ने उस संकेत को समझ कर उसी गेंद से जिस गेंद से वे खेल कर अपना मनोरंजन कर रही थी , एक साथ दोनों पर चोट की महादेवी की गेंद से आहत होकर वे दोनों महाबली दुष्ट दैत्य चक्कर काटते हुए उसी प्रकार भूतल पर गिर पड़े जैसे वायु के वेग से चंचल होकर दो पके हुए ताड़ के फल अपनी डंठल से टूट कर गिर पड़ते हैं। 

        इस प्रकार अकार्य करने के लिए उद्यत उन दोनों महा दैत्यों को धराशाही करके वह गेंद लिंग रूप में परिणत हो।   समस्त दुष्टों का निवारण करने वाला वह लिंग कंदुकेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। और ज्येष्ठश्वर के समीप स्थित हो गया ।  काशी में स्थापित कन्दुकेश्वर लिंग दुष्टों का विनाशक , भोग मोक्ष का प्रदाता और सर्वदा सत्पुरुषों की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। जो मनुष्य इस अनुपम आख्यान को हर्ष पूर्वक सुनता अथवा पढता है उसे दुःख का भय नहीं होता। वह इस लोक में ना - ना प्रकार के सम्पूर्ण उत्तमोत्तम सुखों को भोग कर अंत में देव दुर्लभ दिव्य गति को प्राप्त कर लेता है।  

        
       

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