गूगल से साभार चित्र
भगवान शिव की बात सुनकर सभी ने अपने वाहनों से धरातल पर उतर कर तथा ध्वज की और देखकर भक्ति पूर्ण प्रणाम किया। उन्होंने उस नगरी में प्रवेश को वर्जित करने वाले विघ्नो को भी चारों और देखा। तब भगवान शिव को आगे करके ब्रह्मा , विष्णु और इंद्र ने भैरवी गणों से रक्षित जगदम्बा की उस दिव्य नगरी में प्रवेश किया। उस दिव्य नगरी को देखकर वैकुण्ठपति विष्णु ने भी अपने मन में विस्मित होते हुए अपने दिव्य लोक की निंदा की।
अंतपुर के द्वार पर उन्होंने महाभाऊ ,स्थूलकाय चतुर्भुज गणनायक गजानन को देखा। भगवान् रूद्र ने उन गणनायक से परम प्रीति पूर्वक कहा कि वत्स ! तुम शीघ्र जाकर महाकाली को मेरा सन्देश दो।
माहेश्वरी ! ब्रह्मा ,विष्णु और इंद्र शिव के साथ भक्ति पूर्वक आपके दर्शन की इच्छा से नगर के द्वार आये हैं। उनके साथ रूद्र भी पुर के बाहर खड़े हैं। आप उन देवताओं के साथ वृषभध्वज रूद्र को अंदर आने की आज्ञा प्रदान करें। शिव के ये वचन सुनकर गणनायक शीघ्रता पूर्वक महादेवी के अंतपुर में शिवजी के सन्देश को बताने चले गए।
उन्होंने महादेवी को हाथ जोड़कर प्रणाम करके भगवान् शिव का सन्देश उनसे यथावत निवेदित किया। यह सुनकर जगन्माता ने गणनायक से तुरंत कहा वत्स ! तुम शीघ्र उन देवताओं के पास जाओ और पता करके मुझे बताओ कि यह देवगण किस ब्रह्माण्ड से आये हैं ? क्यूंकि ब्रह्माण्ड तो अनेक हैं। और वहां रहने वाले ब्रह्मा आदि भी अनेक हैं।
यह सुनकर गणनायक ने देवगणों के पास जाकर उनसे पूछा। इस पर वे देवगण अत्यंत चकित होकर बोले कि हम तो किन्हीं अन्य देवेश्वर को नहीं जानते। तब गणनायक ने पुनः जाकर उनकी बात भगवती जगदम्बिका से कही। उन्होंने गणनायक को ब्रह्मा ,विष्णु और शिव को लाने की आज्ञा दी। तब वे गणनायक लौटकर ब्रह्मा ,विष्णु और शिव को भगवती के अंतपुर में ले गए। इंद्र साक्षत प्रकृति रूपा आद्या भगवती के दर्शन से वंचित होकर दुखी मन से उस नगरी के बाहर ही खड़े रहे।
ंमहेष आदि प्रमुख देवगणों ने अंतपुर के श्रेष्ठ द्वार पर आकर रत्न सिंहासन पर विराजमान महादेवी के दर्शन किये। वे श्रेष्ठ आसन पर विराजमान थी। उनके केशपाश खुले हुए थे। उनकी तीन भयानक तेजस्विनी आँखें थी और वे चार भुजाओं से सुशोभित हो रही थी। कोटि सूर्यों के सामान उनकी प्रभा थी। और वे अत्यंत भयाभय थी। उन्होंने श्रेष्ठ रत्नसमूहों से देदीप्यमान कुण्डल धारण कर रखे थे। वे अनेक बहुमूल्य रत्नो के आभूषणों से सुशोभित थी। और मेघ के समान कांति वाली थीं। विकराल दाढ़ों से युक्त वे दिगम्बर स्वरूप में विराजमान थी। तथा विश्वबंध देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे।
सभी में विध्यमान रहने वाली तथा उत्तम लोक में निवास करने वाली मुंडमाला से सुशोभित उन जगदम्बा की सेवा में सखियाँ रत्नजटित दंड वाले चँवर डुला रही थी। उसी समय उन त्रिदेवों ने कठिनाई पूर्वक जिनका दर्शन संभव था और जो कालाग्नि के सामान तेजस्विनी थी उन महादेवी की दाहिनी ओर स्थित महाकाल सदा शिव को देखा।
उनके नेत्र और मुख भय उत्पन्न करने वाले थे। वे जटामुकुट से सुशोभित थे। तथा उन्होंने हाथ में कपाल और खटवांग धारण कर रखा था। एवं उनकी आँखे मद से घूम रही थी। उनके मस्तक पर अर्धचंद्र सुशोभित था। उनकी आभा काजल के समान कृष्ण वर्ण थी। ऐसे अनादि पुरुष ,लोक संहारक ,कोटि सूर्य के समान आभा से युक्त सर्प का आभूषण धारण किये व्यग्र चर्म को धारण करने वाले और चिताभस्म से सुशोभित परमेश्वर का उन्होंने दर्शन किया।
तब उन त्रिदेवों ने वेद वर्णित विविद स्तोत्रों से स्तुति करके भूमि पर दंडवत गिर कर जगदीश्वरी महा देवी और पमेश्वर महाकाल को प्रणाम किया। इसबीच शिवजी सहसा उन महाकाल के साथ एकाकार हो गए। तब ब्रह्मा ,विष्णु ने सदा शिव को न देखकर यह विचार किया की महेश्वर शिव कहाँ चले गए और उन्हें यह चिंता भी हुयी कि इंद्र को देवी के दर्शन होंगे अथवा नहीं। वे दोनों इस प्रकार चिंता कर रहे थे कि जगदीश्वरी महादेवी महाकाल के साथ उसी क्षण अदृश्य हो गयी। तब ब्रह्मा और विष्णु देवी के दर्शन के लिए व्याकुल हो कर हाथ जोड़कर भक्ति पूर्वक महा काली की स्तुति करने लगे।
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