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Showing posts from August, 2017
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महेश्वर और पार्वती अपने दोनों पुत्रों श्री कार्तिकेय और श्री गणेश की बाललीलाओं का आनंद लिया करते थे और उनके दोनों पुत्र भी प्रीतिपूर्वक अपनी विभिन्न लीलाओं के द्वारा माता -पिता को सदा असीम आनंद प्रदान किया करते थे। वे दोनों बालक स्वामी कार्तिक और गणेश भक्तिपूर्वक सदा चित्त से माता - पिता की सेवा किया करते थे।           एक समय शिव और शिवा दोनों एकांत में बैठकर विचार करने लगे कि अब ये दोनों बालक विवाह योग्य हो गए अब इनका विवाह कैसे संपन्न हो।  माता - पिता के विचारों को जानकर उन दोनों के मन में भी विवाह करने की इच्छा हुयी। वे दोनों पहले मैं विवाह करूँगा , पहले मैं विवाह करूँगा - यूँ कहते हुए परस्पर विवाद करने लगे। तब जगत के अधीश्वर लौकिक आचार के साथ बहुत विस्मित हुए। कुछ समय पश्चात् उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और कहा -            शिव - पार्वती बोले - सुपुत्रों ! हम दोनों ने पहले ही यह नियम बनाया है ,जिसे तुम लोग प्रेमपूर्वक सुनो। हमारा प्यार तुम दोनों के लिए सामान है और हमें तुम समान रूप से प्यारे हो।  त...
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       श्री गणेश जी सर्वप्रथम स्थापित किये हुए देवता हैं।  ये बीज हैं ,और बीज से सारा विश्व निकलकर उसी में वापिस समा  जाता है।  विश्व में जो कुछ है , श्री गणेश उसी का बीज हैं।  इसलिए श्री गणेश को प्रमुख देवता माना  जाता है।  सभी लोग प्रथम श्री गणेश जी का पूजन करते हैं। उसका कारण है की श्री गणेश तत्व परमेश्वरी ने सब से पहले इस सृष्टि में स्थापित किया।  संसार में सर्वप्रथम श्री गणेश की स्थापना की गयी।  श्री गणेश पवित्रता के  प्रतीक हैं।  सब से पहले पवित्रता फैलाई गयी। जिससे यहाँ आने वाले मनुष्य सुरक्षित रह सकें। इसलिए गौरी माँ ने इस सृष्टि को पवित्रता से नहला दिया।  पवित्रता का मतलब सिर्फ नहाना तथा सफाई करना नहीं है ,वरन अपने आपको अंदर से पवित्र करना है।  यानि हृदय को स्वच्छ रखें।  अर्थात क्रोध को हृदय से दूर रखें। क्यों की क्रोध आने पर पवित्रता नष्ट हो जाती है। पवित्रता का दूसरा नाम प्रेम है। जो सदा बहता रहता है। प्रेम का सबसे बड़ा शत्रु क्रोध है।  क्रोध के कारण ही संसार में अनेकों युद्ध...
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                                                                                                                              ॐ गं गणपतये नमः           मित्रों आप सबको और आपके परिवार को गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें ।  रिद्धि - सिद्धि के स्वामी भगवान श्री गजानन गौरी गणेश आपकी सभी मनोकामनाएँ पूरी करें।           मित्रों सृष्टि की रचना के पश्चात माँ आदि शक्ति ने प्रथम पुरुष श्री गणेश की उत्पत्ति की। उसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण था और वह था बुद्धि , विवेक ,पवित्रता एवं माँ के प्रति पूर्ण समर्पण।  अगर मनुष्य में ये गुण न हों तो वह पशु सामान हैं। इसलिए माँ आदि  शक्ति ने प्रथम पु...
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            व्यास जी कहते हैं - सुबाहु के इस प्रकार स्तुति करने पर कल्याण स्वरूपणी भगवती जगदम्बा प्रसन्न हो गयी।  उन्होंने सुबाहु से कहा - सुव्रत ! वर मांगों।          व्यास जी कहते हैं - उस समय भगवती  जगदम्बा के वचन सुनकर महाराज सुबाहु भक्ति भाव से संपन्न होकर कहने लगे -        सुबाहु बोले - एक ओर भू -लोक एवं देवलोक का राज्य रख दिया जाये और दूसरीओर  तुम्हारे पुण्यदर्शन तो वह राज्य तुम्हारे दर्शन की तुलना में कुछ भी नहीं है।  तुम्हारे दर्शनों की तुलना संसार के किसी भी पदार्थ से नहीं की जा  सकती है।  माता ! मेरी अभिलाषा यही है की तुम्हारी अविचल भक्ति मेरे हृदय में सदा बानी रहे।  माता ! अब तुम मेरी इस काशी नगरी में सदा के लिए विराजमान हो जाओ। भगवती दुर्गा नाम से तुम्हारी  प्रसिद्धि हो। जिस प्रकार तुमने सुदर्शन की शत्रुओं से रक्षा की उसी प्रकार इस काशी नगरी की सदा रक्षा करो। भगवती दुर्गे तुम कृपा की समुद्र हो ,बस मुझे इसी वरदान की  इच्छा है। ...
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सुबाहु  ने भगवती जगदम्बा की स्तुति आरम्भ की -             जगत को धारण करने वाली देवी को नमस्कार है।  भगवती शिवा को निरंतर नमस्कार है। भगवती दुर्गा सभी मनोकामनाएँ पूर्ण कर देती हैं। उन्हें बारम्बार प्रणाम है। कल्याणमयी माता ! शिवा , शांति  और विद्या ये सभी तुम्हारे नाम हैं।  जीव को मुक्ति देना तुम्हारा स्वभाव है। तुम जगत में व्याप्त हो और सारे संसार का सृजन करना तुम्हारे हाथ का खेल है। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। भगवती मैं अपनी बुद्धि  से विचार करने पर भी तुम्हारी गति को नहीं जान सकता।  निश्चय ही तुम निर्गुण हो और मैं सगुण जीव हूँ।  तुम पारशक्ति हो। भक्तों का संकट टालना तुम्हें बहुत प्रिय है। आज तुम्हारा स्वभाव प्रकट हो गया है। मैं क्या स्तुति करूँ।  तुम भगवती सरस्वती हो। तुम बुद्धि रूप में सब के भीतर विराजमान  हो। सम्पूर्ण प्रणियों में विद्यमान गति , मति , विद्या  और बुद्धि सब तुम्हारे ही रूप हैं।  तुम्हारी क्या स्तुति करू।  जब की मन पर तुम्हारा ही शासन विद्यमान है।  तुम ...
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        व्यास जी कहते हैं - उस समय राजा सुबाहु ने छः  दिन तक सुदर्शन के  अतिथि भोज में बिताये। इधर प्रतापी नरेशों के मार्ग रोकने की सूचना पर राजा उदास होकर चिंता में डूब  गए। यह देखकर श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले सुदर्शन ने अपने ससुर महाराज सुबाहु से कहा - आप हमें निशंक होकर जाने की आज्ञा दीजिये। श्री भारतद्वाज जी के पवित्र आश्रम जाकर हम सावधानी से रहने के लिए स्थान का विचार कर लेंगे।आप राजाओं से भय न करें। भगवती जगत माता सदा ही हमारी सहायता करेंगी।           व्यास जी कहते हैं - महाराज सुबाहु ने जमाता सुदर्शन की बात सुन कर उस पर विचार किया और माँ जगदम्बा के भरोसे तुरंत धन देकर उसकी विदाई की व्यवस्था कर दी। सुदर्शन वहाँ से   चल पड़े।  उनके साथ राजा सुबाहु भी अपनी विशाल सेना के साथ चल पड़े। सुदर्शन अपनी पत्नी के साथ रथ पर बैठे थे।  उनका रथ अन्य रथों से घिरा हुआ था।  जाते हुए राजा सुबाहु ने अन्य राजाओं की और देखा। उनके मन में  घबराहट होने लगी।  लेकिन सुदर्शन निर्भीक और प्रसन्न रहे। ...
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        मित्रों , अभी तक आप राजकुमार सुदर्शन एवं राजकुमारी शशीकला को महामाया भगवती माँ जगदम्बा के द्वारा दिए गए आशीर्वाद से सम्बंधित कथानक को पढ़ रहे हैं। उसी क्रम में आज हम आपको आगे का कथानक बताएँगे -        राजा  सुबाहु ने अपनी पुत्री शशीकला का विवाह राजकुमार सुदर्शन के साथ करने के पश्चात उन्हें भेंट स्वरूप दो सौ घोड़े जुते रथ दिए।  महाराजा काशी नरेश के पास बड़े - बड़े मतवाले हाथी थे, उन्हें वस्त्र , आभूषणों से सजाया गया था।  प्रेम पूर्वक सवा सौ हाथी और हथनियों को भी भेंट में दिया गया।  आभूषणों से सजी - धजी अनेको दासियाँ  भी सेवा के लिए भेंट की गयी।  फिर सब तरह के आभूषणों से युक्त एक हजार सेवक भी दिए गए।  ना -ना प्रकार के वस्त्र , आभूषण और रत्न राजा ने सुदर्शन को भेंट किये।  जिसे सुदर्शन ने प्रेमपूर्वक ग्रहण किया।             उसके पश्चात राजा सुबाहु ने सुदर्शन की माता रानी मनोरमा के पास जाकर हाथ जोड़कर विनती पूर्वक उन से पूछा की आप के मन में कोई बात ह...
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         व्यास जी कहते हैं - राजा सुबाहु की बात सुनकर रानी, पुत्री के पास गयी और बोली - महाराज बहुत दुखी हैं। तुम्हारे लिए आये हुए नरेश उनके दुःख का कारण बन गए हैं।  बेटी तुम सुदर्शन को छोड़कर किसी का भी वरण कर लो।  यदि तुमने हट की तो वह युद्धाजित तुम्हारे साथ हमें और सुदर्शन को भी मार डालेगा।  यदि तुम हमारा और अपना सुख चाहती हो तो किसी दूसरे राजा को अपने पति के रूप में चुन लो।  माता - पिता की बात सुनकर शशीकला को कुछ भी भय नहीं हुआ।           शशीकला ने अपने माता - पिता से कहा की आप मेरी प्रतिज्ञा को जानते ही हैं। मैं सुदर्शन को छोड़कर अन्य किसी का भी वरण नहीं करुँगी। अगर आप उन राजाओं से डरते हैं तो मुझे चुपचाप सुदर्शन को सौंप कर नगर से चले जाने दीजिये।  उसके बाद देवों  की जैसी इच्छा होगी वैसा ही होगा।  देवों  के विधान को कोई टाल नहीं सकता है। इस विषय में आपको चिंता नहीं करनी चाहिए। जो होना है वो होकर रहेगा।             राजा बोले - पुत्री ,ब...
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      व्यास जी कहते हैं- राजन, शशीकला की बात सुनकर राजा सुबाहु का मन चिंतित हो गया।  उसने सोचा कन्या ने कहा तो सही है, अब मुझे क्या करना चाहिए ? अनेकों नरेश अपने सेवको और सेना के साथ यहाँ आये हुए हैं।  उनमें  असी म बल है। उनसे युद्ध करना भी ठीक नहीं है।  अगर मैं उन राजाओं से कन्या के स्वयंवर में न आने के लिए कहू तो वे खोटी बुद्धि वाले नरेश मुझे मार ही डालेंगे।  क्यों   कि वे सब बहुत क्रोधी हैं। मेरे पास न तो   इतनी सेना ही हैऔर न ही सुरक्षित किला।  ये छोटे कद के सुदर्शन भी बिचारे निस्सहाय निर्धन और अकेले हैं। मैं सम्यक प्रकार से दुःख के संसार में डूब चूका हूँ। अब मैं क्या करू ?          इस प्रकार चिंतित होकर तथा मन ही मन कुछ सोच कर राजा सुबाहु नरेशों के पास गए और कहने लगे -  राजाओं मैं क्या करू? मेरी पुत्री स्वयंवर में नहीं आ रही है। मैं आप सभी राजाओं का सेवक हूँ। आप के चरणों में मेरा मस्तक है। अतः आप सब पूजा आदि स्वीकार करके अपने - अपने भवन पर पधारने  की कृपा करें। मैं...
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        व्यास जी कहते  हैं - राजन सुदर्शन की बात सुनकर सभी नरेश उस के विचारों से परिचित हो गए।  तब राजाओं ने कहा - राजकुमार तुम बिलकुल सत्य कहते हो।   उज्जयनि के राजा युद्धाजित तुम्हें मरना चाहते हैं।  हमें तुम पर दया आ  रही है।  अतेव तुम सोच समझकर जो उचित लगे वही करो।         सुदर्शन बोला - आप सब लोग प्रेम रखने वाले दयालु सज्जन हैं,किन्तु दयावान राजाओं कभी  भी कोई प्राणी किसी के मरने से नहीं मर सकता।  संसार का एक भी प्राणी अपनी स्वतंत्रता सिद्ध करने में   असमर्थ है।  उसे सदा अपने किये हुए कर्मों की आधीनता स्वीकार करनी पड़ती है।  विद्वानों ने कर्म के तीन भेद बताएं हैं।  काल , कर्म और स्वभाव।  इन तीनो से   होकर ही यह संसार स्ठिर  है।  काल आये बिना ,देवता तक भी किसी को नहीं मार सकते।  यदि किसी के हाथों कोई मारा गया तो वह केवल निमित मात्र है।  सब को मरने वाला तो केवल अभिनाशी काल है।  यदि प्रारब्ध पूरा हो गया हो तो मृत्यु निश्चित है। ...
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  मित्रों , आप श्री आदिशक्ति माँ जगदम्बा के क्लीम  मन्त्र की महिमा के कथानक को पढ़ रहे हैं।  उसी को आगे बढ़ाते हुए -          श्री व्यास जी कहते हैं - राजन , अपने पुत्र के  स्वयंवर में जाने की तैयारी देखकर राजकुमार की  माता  बहुत डर  गयी।  उसे तरह - तरह के भय सताने लगे।  उसने रोते  हुए अपने पुत्र से कहा की ये समाज राजाओं का है और तुम्हारे पास तो कोई सहायक भी नहीं है।  उस स्वयंवर में राजा युद्धाजित भी आएगा और वहां तुम्हारी सहायता करने वाला भी कोई नहीं होगा।  अतः बेटा तुम वहां मत जाओ।  इस पर सुदर्शन ने  अपनी माँ से कहा - माँ , होनी तो होकर रहती है।  इस विषय में सोचना बेकार  ही है। भगवती  जगदम्बा की आज्ञा से  ही  मैं वहाँ जा रहा  हूँ।  मेरे  मन में जरा  भय नहीं  है।            व्यास  जी कहते हैं - इस प्रकार सुदर्शन रथ पर बैठकर  जाने के लिए तैयार हो गया।  माता मनोरमा ने उसे...
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                 मित्रों , इस संसार में दो तरह के प्राणी रहते हैं ।  एक जो ईश्वर को मानते हैं और दूसरे वो जो प्रकृति को  सर्वोच्च मानते हैं। जबकि ईश्वर  और प्रकृति दोनों एक ही हैं।  हम यहाँ पर इस कथानक के द्वारा उस सर्वशक्तिमान आदिशक्ति या प्रकृति दोनों से ही एकाकारिता पाने का प्रयास करा रहे हैं , और उसके  लिए हमारे पास दो स्थितियों का होना अति आवश्यक है।  प्रथम - अबोधिता एवं दूसरा- समर्पण, समर्पण  का होना अति आवश्यक  है।          मित्रों जिस प्रकार हम बचपन में अपनी अंगुली को अपने माता - पिता या संरक्षक के हाथ में सौंप कर निश्चिन्त हो जाते हैं और पूरी तरह उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं ,तब हम पूरी तरह उनको अपना मार्गदर्शक स्वीकार कर लेते हैं।  इसीप्रकार अगर हम अपने जीवन को उस परम आदिशक्ति को सौंप दे तो हम ,हर चिंता से दूर हो सकते हैं।  मित्रों हर कार्य , हर क्षण उस ही आदिशक्ति या प्रकृति द्वारा ही किया जाता है।  क्यूंकि हर कार्य का कर्त...