व्यास जी कहते हैं - राजन सुदर्शन की बात सुनकर सभी नरेश उसके विचारों से परिचित हो गए। तब राजाओं ने कहा - राजकुमार तुम बिलकुल सत्य कहते हो। उज्जयनि के राजा युद्धाजित तुम्हें मरना चाहते हैं। हमें तुम पर दया आ रही है। अतेव तुम सोच समझकर जो उचित लगे वही करो।
सुदर्शन बोला - आप सब लोग प्रेम रखने वाले दयालु सज्जन हैं,किन्तु दयावान राजाओं कभी भी कोई प्राणी किसी के मरने से नहीं मर सकता। संसार का एक भी प्राणी अपनी स्वतंत्रता सिद्ध करने में असमर्थ है। उसे सदा अपने किये हुए कर्मों की आधीनता स्वीकार करनी पड़ती है। विद्वानों ने कर्म के तीन भेद बताएं हैं। काल , कर्म और स्वभाव। इन तीनो से होकर ही यह संसार स्ठिर है। काल आये बिना ,देवता तक भी किसी को नहीं मार सकते। यदि किसी के हाथों कोई मारा गया तो वह केवल निमित मात्र है। सब को मरने वाला तो केवल अभिनाशी काल है। यदि प्रारब्ध पूरा हो गया हो तो मृत्यु निश्चित है। देव के अनुकूल रहने पर बिना किसी रक्षक के मनुष्य हजारों वर्षो तक जीवित रह सकता है। धर्म में आस्था रखने वाले राजाओं मैं कभी भी युद्धाजित से नहीं डरता। भगवती जगदम्बा का चिंतन मेरे चित्त में क्षण मात्र भी अलग नहीं होता। विश्व को उत्पन्न करने वाली वे भगवती मेरा कल्याण अवश्य ही करेंगी। पूर्व जन्मो के अच्छे या बुरे कर्मो का फल तो अवश्य ही मिलना है। फिर अपने किये हुए कर्मो के भोग से क्या डरना। राजाओं इसलिए इस समाज में , मैं निर्भीक होकर आ गया हूँ। भगवती जगदम्बा की आज्ञा से इस सर्वोत्तम स्वयंवर को देखने की इच्छा से मैं अकेला ही चला आया। मैं भगवती के वचन को ही प्रमाण मानता हूँ। दूसरे किसी को मैं नहीं जनता।
व्यास जी कहते हैं - इस प्रकार सुदर्शन के कहने पर राजाओं को बड़ी प्रसन्नता हुयी। वे सब अपने स्थानों पर पधार गए। सुदर्शन भी अपने डेरे पर आकर शांत चित्त से बैठ गया। दूसरे दिन सुबाहु ने अपने भवन पर सभी राजाओं को बुलाया। मनोहर अलंकारों से अलंकृत नरेश उन मंचो पर आकर बैठ गए। अलौकिक वेषधारी वे राजा लोग ऐसे प्रतीत होते थे मानों विमान पर बैठे देवता हों। सभी स्वयंवर देखने की इच्छा से बैठे थे। सब के मन में इस बात की आतुरता थी की कब वह राजकुमारी आएगी और किस भाग्यवान नरेश को वरेगी। राजकुमारी यदि सयोग वश सुदर्शन के गले में माला दाल देगी तो निशन्देह राजाओं में युद्ध छिड़ जय्र्गे। इतने में राजा सुबाहु के भवन पर बाजो की गगन भेदी ध्वनि होने लगी। उस समय वह राजकुमारी स्नान कर के आयी थी। वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित थी। उस के गले में दोपहरिया के फूलो का हर सुशोभित था। उसने रेशमी साडी पहन राखी थी। विवाह में धारण करने योग्य सभी पदार्थ उसके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। वे ऐसी दिव्य मूर्ति बन गयी थी मनो साक्षात् लक्ष्मी हो। तब पिता सुबाहु ने मुस्कराकर उससे कहा - बेटी उठो और हाथ में फूलो की माला लेकर सभा भवन में चलो। आज वहां बहुत से राजा आये हुए हैं। उनमें जो रूपवान ,गुणवान और उत्तम वंश से सम्बन्ध रखने वाला श्रेष्ठ राजा तुम्हारे मन में जच जाये उसी को तुम वर लो।
व्यास जी कहते हैं - राजकुमारी शशीकला स्वभाव से काम बोलती थी। पिता के अपने विचार व्यक्त करने के बाद उसने पिता के प्रति मधुर वाणी में अपना भाव व्यक्त किया।
शशीकला बोली - पिता जी मेरा यह निश्चय है मैं उपस्थित राजाओं के सामने नहीं जाउंगी। मैंने धर्मशास्त्रों से सुना है की स्त्री केवल एक पति पर ही अपनी दृष्टि डाले । किसी दूसरे पर कदापि नहीं। अनेको पुरुषों के सामने जाने वाली स्त्री का सतीत्व सुरक्षित नहीं रह सकता। क्यूंकि उसे देखकर सभी के मन में उसे अपनी पत्नी बनाने की इच्छा होगी। तब उसकी वही स्थिति हो जाती है जैसे किसी कुलटा की होती है। क्या अब मैं पूर्वजों के बनाये हुए धर्म का पालन नहीं कर सकूंगी। मेरा वहां जाना असम्भव है। मैं तो नियम में अटल रहकर साध्वी स्त्री का जो धर्म है उसका पालन करुँगी। पिताजी आप राजाओं के सिरमौर हैं। आप जानते हैं ,मैं सुदर्शन को अपना स्वामी बना चुकी हूँ। निश्चित रूप से दूसरा विचार नहीं कर सकती। अतः आप मेरा कल्याण चाहते है तो किसी अच्छे दिन विवाह की विधि संपन्न कर के सुदर्शन के हाथ मुझे सौंप दीजिये .............
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