व्यास जी कहते हैं - सुबाहु के इस प्रकार स्तुति करने पर कल्याण स्वरूपणी भगवती जगदम्बा प्रसन्न हो गयी। उन्होंने सुबाहु से कहा - सुव्रत ! वर मांगों।
व्यास जी कहते हैं - उस समय भगवती जगदम्बा के वचन सुनकर महाराज सुबाहु भक्ति भाव से संपन्न होकर कहने लगे -
सुबाहु बोले - एक ओर भू -लोक एवं देवलोक का राज्य रख दिया जाये और दूसरीओर तुम्हारे पुण्यदर्शन तो वह राज्य तुम्हारे दर्शन की तुलना में कुछ भी नहीं है। तुम्हारे दर्शनों की तुलना संसार के किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती है। माता ! मेरी अभिलाषा यही है की तुम्हारी अविचल भक्ति मेरे हृदय में सदा बानी रहे। माता ! अब तुम मेरी इस काशी नगरी में सदा के लिए विराजमान हो जाओ। भगवती दुर्गा नाम से तुम्हारी प्रसिद्धि हो। जिस प्रकार तुमने सुदर्शन की शत्रुओं से रक्षा की उसी प्रकार इस काशी नगरी की सदा रक्षा करो। भगवती दुर्गे तुम कृपा की समुद्र हो ,बस मुझे इसी वरदान की इच्छा है।
व्यास जी कहते हैं - इस प्रकार राजा सुबाहु प्रार्थना करके दुर्गतिहारिणी भगवती के सामने बैठ गए।
माँ जगदम्बा ने कहा - राजन ! काशीपुरी में मेरा सदा निवास रहेगा। जब तक ये काशीपुरी रहेगी मैं यहाँ रहूंगी। इसके बाद सुदर्शन ने आनंदित मन से भगवती जगदम्बा को प्रणाम करके उनकी स्तुति आरम्भ की -
माता ! मैं तुम्हारी कृपा की क्या महिमा गाऊं। मुझ जैसे भक्ति शून्य की भी तुमने आश्चर्य जनक रूप से रक्षा की। सारा जगत तुम्हारी शक्ति की कृपा से विद्यमान है। देवी ! तुम्हीं सरे प्रपंच में जगत की सृष्टि , उसका पालन - पोषण और अंत में उसका नाश भी तुम्हारे द्वारा ही होता है। देवी तुमने मेरी रक्षा की। देवी! आज्ञा दो की मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ।
व्यास जी कहते हैं - इसप्रकार सुदर्शन के प्रार्थना करने पर भगवती जगदम्बा ने दया स्वरूप होकर कहा - महाभाग ! तुम अयोध्या जाओ और कुल की मर्यादा के अनुसार राज करो। मैं तुम्हारे राज्य को सदा स्थिर रखूंगी। नित्य स्तुति करने के साथ ही अष्टमी, चतुर्दशी तथा विशेष रूप से नवमी के दिन विधि - विधान से मेरी पूजा करना परम आवश्यक है। नगर में मेरी प्रतिमा स्थापित करना। शरद ऋतु में अर्थात आश्विन नवरात्र में विधिपूर्वक मेरी विशिष्ठ पूजा होनी चाहिए। चैत्र , अश्विन , आषाढ़ और माघ महीने में मेरा विधि पूर्वक महोत्सव मानना चाहिए। उस समय विशेष पूजा भी होना आवश्यक है।
व्यास जी कहते हैं - इतना आदेश देकर सारे दुखों को दूर करने वाली दुर्गा अंतरध्यान हो गयी। यह सब देखकर सभी नरेश सुदर्शन के पास आये और प्रणाम करने लगे। राजा सुबाहु ने भी सुदर्शन को प्रणाम किया और बोले - आप की कृपा से भगवती जगदम्बा के हमें दर्शन प्राप्त हुए। ये कल्याणमयी देवी आदिशक्ति हैं।
सारे नरेशों ने सुदर्शन से कहा - राजेंद्र ! हम सब भगवती जगदम्बा के प्रभाव से अपरिचित थे। अब आप भगवती के उत्तम महात्म का वर्णन करने की कृपा करें।
व्यास जी कहते हैं - राजाओं के पूछने पर सुदर्शन ने मन ही मन भगवती जगदम्बा को प्रणाम किया तथा उनसे कहने लगे - राजाओं उन भगवती जगदम्बा के विषय में कुछ भी कहना असंभव है। उनके उत्तम चरित्र के विषय में इंद्र आदि सभी देवता कुछ भी बताने में असमर्थ हैं। भगवती आदि स्वरूप हैं। वे आदिशक्ति महालक्ष्मी रूप में सर्वत्र जगत द्वारा पूजी जाती हैं। भगवती सात्विक रूप में जगत का पालन करती हैं। उनके रजोगुण रूप से संसार की उत्पत्ति होती है और तामसी रूप के द्वारा ये संहार लीला करती हैं। इसलिए इनको त्रिगुणात्मिका मान गया है। भगवती के निर्गुण रूप के द्वारा मनुष्य की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है। वही कर्ता हैं और वहीँ कर्विता हैं। भगवती के निर्गुण रूप को जानने के लिए योगीजन भी असमर्थ रहते हैं। इसलिए हमें सदा भगवती के सगुण रूप की ही निरंतर ध्यान और आराधना करनी चाहिए। सुदर्शन की बात सुनकर सभी राजा भक्तिभाव से भर गए और समझ लिया की भगवती से बढ़कर दूसरी कोई शक्ति नहीं है। इसके बाद वे सभी राजा अपने - अपने स्थानों पर चले गए।
सुदर्शन के अयोध्या पहुंचने पर वहाँ के निवासियों ने तथा महल के मंत्रियों ने उनका स्वागत किया। अपने भवन में पहुंचकर सुदर्शन ने उत्तम दिन तथा शुभमुहूर्त में सर्वप्रथम स्वर्ण का एक बहुत सुन्दर सिंहासन बनवाया तथा एक भव्य मंदिर का निर्माण कर उस सिंहासन पर माँ भगवती जगदम्बा को विराजित किया।
राजा सुदर्शन ने वेदवादी ब्राह्मणों द्वारा कल्याण स्वरूपणी भगवती की विधि - विधान के साथ स्थापना कर भांति - भांति से उनकी पूजा अर्चना की और बड़ा भरी उत्सव मनाया गया। उसके उपरांत सुदर्शन ने अपने पुरखों की सम्पति एवं राज्य पर अधिकार स्वीकार किया तथा प्रसन्नता पूर्वक जनता के भलाई के कार्यों में लग गए।
अगले कथानक प्रतिदिन नए स्वरूप में .............
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