मित्रों , अभी तक आप राजकुमार सुदर्शन एवं राजकुमारी शशीकला को महामाया भगवती माँ जगदम्बा के द्वारा दिए गए आशीर्वाद से सम्बंधित कथानक को पढ़ रहे हैं। उसी क्रम में आज हम आपको आगे का कथानक बताएँगे -
       राजा  सुबाहु ने अपनी पुत्री शशीकला का विवाह राजकुमार सुदर्शन के साथ करने के पश्चात उन्हें भेंट स्वरूप दो सौ घोड़े जुते रथ दिए।  महाराजा काशी नरेश के पास बड़े - बड़े मतवाले हाथी थे, उन्हें वस्त्र , आभूषणों से सजाया गया था।  प्रेम पूर्वक सवा सौ हाथी और हथनियों को भी भेंट में दिया गया।  आभूषणों से सजी - धजी अनेको दासियाँ  भी सेवा के लिए भेंट की गयी।  फिर सब तरह के आभूषणों से युक्त एक हजार सेवक भी दिए गए।  ना -ना प्रकार के वस्त्र , आभूषण और रत्न राजा ने सुदर्शन को भेंट किये।  जिसे सुदर्शन ने प्रेमपूर्वक ग्रहण किया।   
         उसके पश्चात राजा सुबाहु ने सुदर्शन की माता रानी मनोरमा के पास जाकर हाथ जोड़कर विनती पूर्वक उन से पूछा की आप के मन में कोई बात हो तो कहें। तब रानी मनोरमा ने राजा से कहा - राजन ! आपका कल्याण हो।  आप एक प्रख्यात नरेश हो।  आप से सम्बन्ध हो जाने के कारण मेरा पुत्र सुदर्शन पर्वत के समान उच्च अधिकार पा गया।  अपने राज्य से निकले गए मेरे पुत्र को अपनी पुत्री प्रदान करी ,यह एक बहुत बड़ी बात है।  आपने इतने आदरणीय नरेशों के होते हुए और उन सभी से बैर  मोल लेकर मेरे पुत्र को अपनी कन्या दी।  तुम्हारी धीरता के लिए मैं आपकी प्रसंशा करती हूँ। 
        रानी   मनोरमा के वचन सुनकर राजा सुबाहु को अपार हर्ष हुआ।  उन्होंने हाथ जोड़कर रानी मनोरमा से कहा - मेरा राज्य बहुत प्रसिद्ध है।  आप इस राज्य को स्वीकार करें।  यदि ऐसा करना सम्भव न हो तो कृपया आप आधा राज्य ही स्वीकार करें और अपने पुत्र के साथ यहाँ रहें।  आप काशी में न रहकर किसी ग्राम या वन में रहें यह मेरी मर्यादा के विरुद्ध होगा।  अब उन राजाओं का मुझ पर क्रोधित होना निश्चित है।  मैं उन्हें समझाऊंगा नहीं तो दान और दंड के उपाय को काम में लूंगा।  अगर वे इस पर भी न माने तो युद्ध निश्चित है।  हार और जीत समय के  हाथ है। लेकिन युद्ध में धर्म की ही जीत होती है।  अधर्म के पक्ष वाले विजयी नहीं हो सकते।  तो फिर उनकी मन चाही बात कैसे सम्भव है। 
        सुबाहु की वाणी में उनका गर्व झलक रहा था।  उसे सुनकर रानी मनोरमा ने राजा सुबाहु से आनंदित मन से कहा - राजन तुम्हारा कल्याण हो।  तुम आराम से अपने पुत्रों के साथ  यहाँ राज करो। मेरा पुत्र भी अयोध्या में राज करेगा।  यह निश्चित है।  आप मुझे यहाँ से जाने की आज्ञा दें।  भगवती जगदम्बा तुम्हारा कल्याण करें। मैं भगवती जगदम्बा का भली- भांति ही चिंतन करती हूँ।  मेरे लिए आप चिंतित न हों। 
       सुबह   होने पर जब नरेशों को पता चला की राजकुमारी का विवाह हो गया तो उनका क्रोध भड़क उठा और वे बोले सुदर्शन राजकुमारी से विवाह करने योग्य नहीं है। हम आज ही राजा सुबाहु और सुदर्शन को मारकर राज्य लक्ष्मी सहित राजकुमारी शशीकला को छीन लेंगे।  हम लज्जित होकर अपने द्वार पर नहीं जायेंगे।  हमें बातों में लगा कर   सुबाहु ने अवश्य दोनों का विवाह संस्कार कर दिया है।  राजाओं इस विषय में हमें सोचकर निर्णय लेना चाहिए।  
        अभी वे राजा आपस में बात कर ही रहे थे कि काशी नरेश राजा सुबाहु वहां पधारे।  राजा सुबाहु ने उन राजाओं से कहा - सभी महाभाग भोजन करने के लिए मेरे निवास पर पधारें।  मेरी कन्या ने राजकुमार सुदर्शन को अपना पति बना लिया है  अब मैं इस विषय में क्या कर सकता हूँ।  कृपया कर के आप लोग शांति पूर्वक कार्य करें।  क्यूंकि महापुरुषों का काम तो दया करना है। 
        राजा सुबाहु की बात सुनकर सभी राजा लोग क्रोध से तमतमा उठे और बोले - राजन ! हम भोजन कर चुके। अब तू घर जा  और जो कार्य बाकि हो उसे भी पूरा कर।  राजा सुबाहु संकित होकर वहां से चल दिए और सोचने लगे की अब ये क्रोधित नरेश  न जाने क्या कर डालेंगे।  सुबाहु के चले जाने के पश्चात् कुछ राजा सुदर्शन को मार डालने के पक्ष में थे कुछ  राजा उसे छोड़ने के।  इस पर विरोधी राजा मार्ग रोककर डट गए।  इधर राजा सुबाहु विवाह की शेष विधियों को पूरा करने में लग गए। 

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