व्यास जी कहते हैं - राजा सुबाहु की बात सुनकर रानी, पुत्री के पास गयी और बोली - महाराज बहुत दुखी हैं। तुम्हारे लिए आये हुए नरेश उनके दुःख का कारण बन गए हैं। बेटी तुम सुदर्शन को छोड़कर किसी का भी वरण कर लो। यदि तुमने हट की तो वह युद्धाजित तुम्हारे साथ हमें और सुदर्शन को भी मार डालेगा। यदि तुम हमारा और अपना सुख चाहती हो तो किसी दूसरे राजा को अपने पति के रूप में चुन लो। माता - पिता की बात सुनकर शशीकला को कुछ भी भय नहीं हुआ।
शशीकला ने अपने माता - पिता से कहा की आप मेरी प्रतिज्ञा को जानते ही हैं। मैं सुदर्शन को छोड़कर अन्य किसी का भी वरण नहीं करुँगी। अगर आप उन राजाओं से डरते हैं तो मुझे चुपचाप सुदर्शन को सौंप कर नगर से चले जाने दीजिये। उसके बाद देवों की जैसी इच्छा होगी वैसा ही होगा। देवों के विधान को कोई टाल नहीं सकता है। इस विषय में आपको चिंता नहीं करनी चाहिए। जो होना है वो होकर रहेगा।
राजा बोले - पुत्री ,बुद्धिमान को ऐसा कार्य करना चाहिए जो उचित हो। तुम्हें महल से निकाल कर वे राजा लोग शत्रु बनकर क्या अनिष्ठ करेंगे , मैं जनता हूँ। पुत्री अगर तुम सहमत हो तो मैं वैसा स्वयंवर निश्चित कर दूँ ,जैसा राजा जनक ने सीता के लिए किया था। इस समय कोई कठिन कार्य उन राजाओं के आगे रख दूँ जिससे राजाओं में विवाद उत्पन्न न हो। जिसमें उस प्रतिज्ञा को पालन करने की योग्यता होगी वही तुम्हारा पति होगा।
शशीकला ने अपने पिता से कहा - पिताजी आप निश्चिन्त होकर विवाह विधि का पालन करते हुए मुझे सुदर्शन को सौंप दीजिये। जिनका नाम जपने से अनेकों दुःख टल जाते हैं ,वे ही भगवती चण्डिका हमारा कल्याण करेंगी। उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करके कोई ऐसा कार्य कीजिये। अभी आप उन राजाओं से कल स्वयंवर में पधारने के लिए कहें। इस प्रकार सारे राजाओं को यहाँ से हटाकर वैदिक विधि से सुदर्शन के साथ मेरा विवाह कर दीजिये और मुझे विदा कर दीजिये। ध्रुव संधि नरेश सुदर्शन मुझे लेकर यहाँ से चले जायेंगे और यदि राजा लोग क्रोधित होकर युद्ध करेंगे तो भगवती चण्डिका हमारी सहायता अवश्य करेंगी और भगवती की सहायता पाकर सुदर्शन भी उन राजाओं का सामना करेंगे। यदि राजकुमार सुदर्शन युद्ध में काम आ गए तो मैं उनके साथ तुरंत सती हो जाउंगी। आपका कल्याण हो। पिताजी आप मुझे सुदर्शन को सौंप कर सेना सहित घर पर रहें। मैं अकेले ही सुदर्शन के साथ चले जाउंगी।
शशीकला के इसप्रकार कहने पर राजा ने ऐसा ही करने का निश्चय किया और इसका शशीकला को विश्वास भी दिला दिया।
व्यास जी कहते हैं - राजा सुबाहु का अंतःकरण बहुत ही पवित्र था। अपनी पुत्री की बात सुनकर वह राजाओं के पास गया और उनसे बोला - राजाओं आज आप लोग डेरे पर पधारें - विवाह का कार्य कल तक के लिए स्थगित कर दिया गया है। आज मेरी पुत्री स्वयंवर में आने के लिए राजी नहीं है। कल मैं उसे समझा बुझा कर ले आऊंगा। आप लोग कल इस सभा में पधारिये। हम सब मिलकर विवाह का कार्य संपन्न करेंगे। मेरी कन्या शशीकला का आज स्वयंवर में आना असम्भव हैं। बुद्धिमानों के समाज में विग्रह को स्थान नहीं दिया जाता है। विशेष रूप से जो अपनी संतान हो उस पर अवश्य कृपा की जाती है। कल प्रातः इच्छा स्वयंवर किया जायेगा। सभी नरेशों की उपस्थिति में यह कार्य संपन्न किया जायेगा।
राजा सुबाहु के कहने पर सब नरेश अपने डेरे पर चले गए तथा नगर के पास वे इस बात का ध्यान भी रख रहे थे की उनके साथ कोई छल न हो सके।
राजा सुबाहु ने अपनी पुत्री के विवाह का समय निश्चित करके महल के एक गुप्त स्थान पर विवाह की तैयारी की तथा वेदी पर वर को बिठाकर विधि पूर्वक पूजा आदि की तथा अपनी कन्या शशीकला का सुदर्शन के साथ विधि पूर्वक विवाह संपन्न कराया। सुदर्शन ने भी राजा के द्वारा दी हुयी विभिन्न वस्तुएँ प्रेम से स्वीकार की। उसके बाद मंत्रियों ने भी उस उत्तम वर की वस्त्रों आदि से पूजा की। स्त्रियों ने भी शशीकला को विधिपूर्वक आभूषणों से खूब सजाकर पालकी में बिठाकर वर के समक्ष उपस्थित कर दिया। मण्डप में विधिपूर्वक हवन किया गया। तथा वर व वधु ने भी प्रेमपूर्वक हवन किया। उसके पश्चात् अग्नि के चारों ओर फेरे लिए गए। सब कुछ कुल व गोत्र की प्रथा के अनुसार ही किया गया।
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