व्यास जी कहते हैं- राजन, शशीकला की बात सुनकर राजा सुबाहु का मन चिंतित हो गया।  उसने सोचा कन्या ने कहा तो सही है, अब मुझे क्या करना चाहिए ? अनेकों नरेश अपने सेवको और सेना के साथ यहाँ आये हुए हैं।  उनमें  असीम बल है। उनसे युद्ध करना भी ठीक नहीं है।  अगर मैं उन राजाओं से कन्या के स्वयंवर में न आने के लिए कहू तो वे खोटी बुद्धि वाले नरेश मुझे मार ही डालेंगे।  क्यों   कि वे सब बहुत क्रोधी हैं। मेरे पास न तो  इतनी सेना ही हैऔर न ही सुरक्षित किला।  ये छोटे कद के सुदर्शन भी बिचारे निस्सहाय निर्धन और अकेले हैं। मैं सम्यक प्रकार से दुःख के संसार में डूब चूका हूँ। अब मैं क्या करू ? 
        इस प्रकार चिंतित होकर तथा मन ही मन कुछ सोच कर राजा सुबाहु नरेशों के पास गए और कहने लगे - 
राजाओं मैं क्या करू? मेरी पुत्री स्वयंवर में नहीं आ रही है। मैं आप सभी राजाओं का सेवक हूँ। आप के चरणों में मेरा मस्तक है। अतः आप सब पूजा आदि स्वीकार करके अपने - अपने भवन पर पधारने  की कृपा करें। मैं बहुत से रत्न, वस्त्र ,हाथी व रथ देता हूँ। उन्हें लेकर आप कृपा करके अपने - अपने भवनों पर पधारे।  कन्या मेरे वश में नहीं है।  आगर उसे दंड दिया गया तो वह मरने के लिए तैयार है।  अतेव मैं बहुत ही चिंतित हूँ।  आप सभी बड़े दयालु अत्यंत भाग्यशली और अपार  तेजस्वी हैं। फिर मेरी इस भाग्यहीन कन्या से आपको क्या फल मिलेगा? मैं आप सब लोगों का कृपा पात्र हूँ।  मुझे हर तरह से आपकी सेवा स्वीकार है।  अब आपको चाहिए कि  मेरी कन्या को अब अपनी कन्या समझ लें।  
         व्यास जी कहते हैं - महाराज सुबाहु की बात सुनकर कुछ राजा तो चुप हो गए किन्तु युद्धाजित की आँखें क्रोध से लाल हो गयी।  अत्यंत क्रोध में वह राजा सुबाहु से कहने लगा - राजा तू बहुत ही मुर्ख है। कन्या के विषय में अगर तुझे कोई संदेह था तो तूने इस स्वयंवर का आयोजन क्यों किया ? क्यों तूने इतने राजाओं को बुलाया ? अब ये सब अपने घर लौट जाएँ ये कैसे उचित माना जा सकता है। 
          युद्धाजित ने सुबाहु से कहा- क्या तू सब राजाओं का अपमान करके सुदर्शन के साथ अपनी कन्या का विवाह करना चाहता है ? इस से बढ़कर नीचता क्या हो सकती है ?  तूने बिना सोचे समझे ये कार्य कर डाला - सेना तथा इतने वाहनों  से संपन्न इतने राजाओं को छोड़कर अब सुदर्शन को जमात बनाने की तेरी ये इच्छा कैसे हुयी ? मैं अभी तुझ पापी नरेश को मर डालता हूँ।  इसके बाद सुदर्शन भी मेरे हाथों मारा जायेगा।  फिर मैं इस कन्या का विवाह अपने दोहित्र के साथ करूँगा।  मेरे अलावा वो दूसरा कौन है? जिसे इस कन्या के हरण की इच्छा हो गयी।  जब यह लड़का सुदर्शन भारतद्वाज जी के आश्रम में था तभी मैं इसे मार डालता ,लेकिन मुनि के कहने पर  छोड़  दिया था।  किन्तु अब मैं इसे नहीं छोड़ूंगा। अब इस छोकरे के प्राण नहीं बच सकते।  अब तू भली प्रकार विचार कर अपनी कन्या का  विवाह मेरे दोहित्र के साथ कर दे।  
             कुल,  धन , बल ,रूप ,राज्य, दुर्ग देखकर ही कन्या का विवाह करना चाहिए। वरना सुख की इच्छा व्यर्थ है।  राजन तू अपनी कन्या को सखियों के साथ स्वयंवर में ले आ। अगर वह स्वयंवर में किसी दूसरे राजा को भी वर लेगी तो तेरे साथ मेरा कोई विवाद नहीं रहेगा।   विवाह वह होना चाहिए जिससे तेरा भी मनोरथ पूर्ण हो।  अगर कन्या इनमें से किसी को वर लेती है   तो विरोध ही क्या ? अन्यथा इस सुंदरी कन्या का हरण किये बिना मुझे चैन नहीं आएगा।  राजन तू इस कार्य को संपन्न कर - असाध्य कलह में पड़ना उचित नहीं है।   
          व्यास जी कहते हैं - युद्धाजित के क्रोधपूर्ण वचनो को सुन कर राजा सुबाहु लम्बी साँस छोड़ता हुआ अपने भवन में गया।  और अपनी पत्नी से बोला - प्रिये, तुम्हें सभी धर्म ज्ञात हैं। तुम पुत्री से कहो की ऐसा भयंकर कलह मच गया है। इस अवसर पर मुझे क्या करना चाहिए ? मैं स्वयं कुछ नहीं  कर सकता।  क्यूंकि मैं तो तुम्हारे वश में हूँ। 

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