व्यास जी कहते हैं - उस समय राजा सुबाहु ने छः  दिन तक सुदर्शन के  अतिथि भोज में बिताये। इधर प्रतापी नरेशों के मार्ग रोकने की सूचना पर राजा उदास होकर चिंता में डूब  गए। यह देखकर श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले सुदर्शन ने अपने ससुर महाराज सुबाहु से कहा - आप हमें निशंक होकर जाने की आज्ञा दीजिये। श्री भारतद्वाज जी के पवित्र आश्रम जाकर हम सावधानी से रहने के लिए स्थान का विचार कर लेंगे।आप राजाओं से भय न करें। भगवती जगत माता सदा ही हमारी सहायता करेंगी। 
         व्यास जी कहते हैं - महाराज सुबाहु ने जमाता सुदर्शन की बात सुन कर उस पर विचार किया और माँ जगदम्बा के भरोसे तुरंत धन देकर उसकी विदाई की व्यवस्था कर दी। सुदर्शन वहाँ से   चल पड़े।  उनके साथ राजा सुबाहु भी अपनी विशाल सेना के साथ चल पड़े। सुदर्शन अपनी पत्नी के साथ रथ पर बैठे थे।  उनका रथ अन्य रथों से घिरा हुआ था।  जाते हुए राजा सुबाहु ने अन्य राजाओं की और देखा। उनके मन में  घबराहट होने लगी।  लेकिन सुदर्शन निर्भीक और प्रसन्न रहे। उन्होंने विधि पूर्वक जगदम्बा का ध्यान किया और मन्त्र का जाप आरम्भ कर दिया।  इतने में विरोधी राजाओं ने शोर करते हुए ,राजकुमारी को छीनने के विचार से आगे बढे।  काशी नरेश सुबाहु यह देखकर उन पर प्रहार के लिए तैयार हो गए। इसपर सुदर्शन ने उन्हें रोक दिया।  एक दूसरे को मरने की अभिलाषा रखने वाले राजाओं और सुबाहु में युद्ध की योजना बन गयी। शंख ,नगाड़े और भेरियां बजने लगी।  
         युद्ध का शंखनाद होते ही शत्रुजित अपने सैन्य बल के साथ सुदर्शन को मरने के लिए आगे आया।  उसका नाना युद्धाजित सहायक बनकर उसके साथ खड़ा हुआ था।  इसके बाद युद्धाजित आगे बढ़कर सुदर्शन के पास आ पंहुचा।  शत्रुजित ,सुदर्शन का भाई था फिर भी वह सुदर्शन को मरने के लिए युद्धाजित के साथ वहां पहुंच गया।  क्रोध के वसीभूत वे तीनों एक - दूसरे पर बाणों का प्रहार करने लगे। घमासान युद्ध छिड़ गया।  काशी नरेश सुबाहु भी सुदर्शन की सहायता के लिए अपनी सेना के साथ वहां पहुंच गए।  
         इतने में अचानक सिंह पर सवार भगवती दुर्गा वहां साक्षात् प्रकट हो गयीं।  उनकी भुजाएँ तरह - तरह के आयुद्धों से विभूषित थी।  उनका मनोहर रूप उत्तम आभूषणों से अलंकृत था।  वे दिव्य वस्त्र पहने हुए थी।  उनके गले में मदार के फूलों की माला शोभा पा रही थी। उस  समय भगवती को देखकर सभी नरेश आश्चर्य में पड़ गए और कहने लगे - सिंह पर सवार ये देवी कौन हैं ? और कहाँ से प्रकट हुयी हैं ? सुदर्शन ने भगवती के दर्शन पाकर राजा  सुबाहु  कहा - राजन ! देखिये ये परम आराध्या माँ भगवती जगदम्बा मुझ पर कृपा करने के लिए यहाँ पधारी हैं। माँ अत्यंत दयालु हैं। मैं उन की कृपा से निर्भय हूँ। सुबाहु और सुदर्शन ने प्रसन्न वंदना माँ भगवती दुर्गा का  दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया।  सिंह ने  बड़े जोर से गर्जना की।  उसकी गर्जना से हाथी काँपने लगे। भीषण आंधी चलने लगी।  तब सुदर्शन ने अपने सेनापति से उस मार्ग की ओर  चलने को कहा ,जहाँ राजा लोग डटे हुए थे। वे दुराचारी नरेश अब मेरा क्या कर लेंगे। जब भगवती जगदम्बा हम पर कृपा करने के लिए स्वयं   पधारी हैं।  मैंने भगवती का स्मरण किया है और वे स्वयं यहाँ विराज रही हैं।  फिर कोई भय नहीं है।  
        सुदर्शन के कहने पर सेनाध्यक्ष उसी मार्ग पर बढ़ा।  तब युद्धाजित कुपित होकर अपने पक्ष के राजाओं से बोला - अरे तुम लोग भयभीत क्यों हो ? इस निर्बल छोकरे सुदर्शन ने हम वीरों  का अपमान किया है। अब कन्या को लेकर निर्भय चला जा रहा है।  क्या सिंह पर बैठी स्त्री को देखकर तुम लोग भयभीत हो गए हो।  सावधान होकर इस राजकुमार को मार डालने का यत्न करो।
इसके मरने के पश्चात सुंदर आभूषणों से युक्त इस सुन्दर कन्या को छीन लिया जायेगा ( शेर के भाग को भला सियार कैसे खा सकता है ?)
         इस प्रकार युद्धाजित ने सेना को एकत्रित करके क्रोधित होकर शत्रुजित को साथ लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गया।  युद्धाजित की बुद्धि बड़ी खोटी थी। वह सुदर्शन को मार डालने की इच्छा से उस पर बाणों की वर्षा करने लगा।  सुदर्शन भी अपने बाणों से उसके बाणों को काटने लगा।  जब इस प्रकार युद्ध चल रहा था तब माँ भगवती दुर्गा  क्रोध से तमक उठीं। उस समय भगवती जगदम्बा के अनेक रूप दिखाई दिए। वे युद्धाजित को लक्ष्य करके बाणों की वर्षा करने लगी। कुछ ही देर में युद्धाजित और शत्रुजित अपने रथ से गिर पड़े।  उनकी जीवनलीला समाप्त हो गयी। दोनों के मारे जाने पर सभी राजाओं को महान आश्चर्य हुआ।  उन दोनों का निधन होने पर  सुबाहु को बड़ी प्रसन्नता हुयी।  फिर वह दुःख दूर करने वाली माँ भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगे। 

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