मित्रों जैसा कि पहले हमने अपने शत्रु यानि काम , क्रोध , लालच , अहंकार ,बैर , द्वैष ,ईर्ष्या , भय इन शत्रुओं के बारे में बताया था जो की हमारे अंदर ही विध्यमान हैं, और वे ही हमारे उत्थान (प्रगति ) में बाधक हैं। इसी सन्दर्भ मे हम आपको एक प्रसंग बताते हैं।
मित्रों एक समय की बात है- श्रीमान विश्वामित्र जो की एक प्रसिद्ध नरेश हो चुके हैं , वे घूमते हुए वशिष्ठ मुनि के आश्रम पर पहुंच गए। उन प्रतापी नरेश ने मुनि को प्रणाम किया। मुनि ने राजा को बैठने के लिए आसन दिया। उसके बाद मुनि वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र को भोजन के लिए बुलाया। महाराज विश्वामित्र अकेले नहीं थे। उनके साथ बड़ी सेना भी थी। मुनि वशिष्ठ के पास नंदनी गाय थी। जो वशिष्ठ जी के मांगने पर सभी खाने - पीने की वस्तओं को उपलब्ध करा देती थी। उस नंदनी गाय की कृपा से वहां पर सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाने - पीने की वस्तुऐं उपस्थित हो गयी। नंदनी गाय के प्रभाव से महाराज विश्वामित्र भी अपरिचित नहीं थे। अतः वो मुनिवर वशिष्ठ जी से उस नंदनी गाय को मांगने लगे। विश्वामित्र जी बोले मुनिवर आप बहुत ही तपस्वी हैं। आप से मेरी प्रार्थना है आप नंदनी गाय को मुझे दे दें। उसके बदले में, मैं आपको एक हजार गायों को दे दूंगा। इस पर मुनि वशिष्ठ जी ने कहा - राजन ये गाय हवन के लिए हविष्य प्रदान करती है। इसलिए मैं इसे नहीं दे सकता। विश्वामित्र ने इस पर मुनि से कहा की मैं आपको एक लाख तक गायें देने को तैयार हूँ। वरना मैं आपसे नंदनी को बल पूर्वक ले लूंगा। मुनि ने राजा से कहा - कि आप बलपूर्वक इसे ले जा सकते हैं। परन्तु मैं अपनी रूचि से इसे आपको नहीं दे सकता हूँ। मुनि की बात सुनकर राजा विश्वामित्र ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि तुम लोग नंदनी गाय को पकड़ लो। उन्होंने बल पूर्वक नंदनी को बांध लिया। नंदनी भय से कांपने लगी और उसने वशिष्ठ जी से कहा - कि आप मुझे त्याग रहे हैं। तब मुनि बोले - मैं तुम्हें त्याग नहीं रहा हूँ। ये राजन ही तुम्हें बलपूर्वक लिए जा रहे हैं। इस प्रकार वशिष्ठ जी के कहने पर नंदनी के सर्वांग में क्रोध भड़क उठा। वह जोर - जोर से रम्भाने लगी। उसी समय उसके शरीर से भयंकर दैत्य निकलने लगे। जो की हथियार लिए हुए थे। फिर उन दैत्यों ने राजा की सारी सेना को समाप्त कर दिया और नंदनी गाय को बंधन से मुक्त करा लिया। इसके बाद राजा विश्वामित्र लज्जित होकर अकेले ही घर चले गए। आत्मगलानी के फलस्वरूप जंगल में तपस्या करने चले गए।
दोस्तों लालच में आकर राजा विश्वामित्र ने अपनी सेना को खो दिया। तथा आत्मगलानी का बोध भी महसूस किया ,कि राजा को कभी भी किसी तपस्वी का अपमान नहीं करना चाहिए।
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