दोस्तों पिछले कथानक में कशी नरेश की पुत्री को जब यह ज्ञात हुआ कि, भारतद्वाज मुनि के आश्रम में रहने वाले राजकुमार सुदर्शन एक सुरवीर होने के साथ - साथ बहुत ही सुन्दर भी हैं। तब शशिकला के मन में उसे अपना पति बनाने की इच्छा हुयी। उसी दिन आधी रात के समय स्वपन में भगवती जगदम्बिका ,शशीकला के पास पधारी और उसे आश्वासन देकर कहने लगी - उत्तम कटिभाग से शोभा पाने वाली सुंदरी वर मांगो। सुदर्शन मेरा भक्त है। मेरी अज्ञा मानकर सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला, वह सुदर्शन अब तुम्हारा हो गया। इस प्रकार भगवती जगदम्बिका के मनोहर रूप के दर्शन पाकर और उनके मुख से सुन्दर वचनों को सुनकर शशीकला बड़ी जोर से हॅसने लगी, और वह उठकर बैठ गयी। शशीकला की माँ के बार - बार पूछने पर उस तपस्विनी राजकन्या ने कुछ भी नहीं बताया। शशीकला ने एक दूसरी सखी को स्वपन की सभी बातें विस्तार से बता दी। उसके उपरांत शशीकला अपनी शाखियों के साथ घूमने के लिए सुन्दर उपवन में गयी। चंपा के बहुत से वृक्ष उस उपवन की शोभा बढ़ा रहे थे। फूल तोड़ती वह राजकुमारी एक चंपा के वृक्ष के नीचे बैठ गयी। उसने देखा एक ब्राह्मण बड़ी उतावली से उस मार्ग पर चल कर आ रहा है। राजकुमारी ने उससे पूछा कि - आप किस देश से पधारे हैं ? ब्राह्मण ने कहा कि - मैं भारतद्वाज जी के आश्रम से एक कार्य के लिए इधर आया हूँ। आप क्या पूछती हैं मुझ से कहे। शशीकला ने उससे पूछा की उस आश्रम में अत्यंत प्रशसनीय संसार से बढ़कर तथा विशेष रूप से देखने योग्य क्या है ?
ब्राह्मण ने कहा - वहां ध्रुवसन्धि राजकुमार श्रीमान सुदर्शन रहते हैं। उन श्रेष्ठ पुरुष का जैसा नाम है ,वैसे ही उनमें सभी गुण भरे हुए हैं। सुंदरी जिसने कुमार सुदर्शन को नहीं देखा उसने अपने नेत्रों से कुछ नहीं देखा ,ऐसा समझ लो। वे बहुत ही विलक्षण है। गुणों के सागर सुदर्शन को ही मैं देखने योग्य मनाता हूँ। वे सर्वथा तुम्हारे पति होने योग्य हैं। मणि और कंचन की भांति तुम दोनों का योग पहले से ही निश्चित हो चूका है।
ब्राह्मण के वचन सुनकर शशीकला के मन में प्रेम की धारा बह निकली। शशीकला ने अपनी प्रिय सखी से कहा - प्रिये जिसका प्रशंग सुनकर मेरे रोम - रोम में रोमांच हो रहा है वे अवश्य ही किसी अच्छे कुल का राजकुमार है। अब मैं उस राजकुमार से मिलना चाहती हूँ । अतः मैं उस वन में जाना चाहती हूँ ,जहाँ राजकुमार रहता है।
व्यास जी कहते हैं - राजकुमार सुदर्शन का कोई सहायक नहीं था ,और न ही वह धनवान था। और न ही वह प्रसिद्ध सूरवीर था। फल -मूल खाकर वनवासी जीवन व्यतीत करता था। केवल भगवती जगदम्बिका का कामबीज मंत्र उसके हृदय में बस गया था। उसी मंत्र के जप के प्रभाव से उसे सिद्धि मिल गयी थी। क्योंकि जप की क्रिया सदा उसके मन में चलती रहती थी।
Bhaut Sunder Lekh hai
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