श्री शक्ति और शिव भोले भक्तों को सुख देने वाले देवेश्वर आप भक्ति पूर्वक हैं ! तथा गणों के अधिपति हैं।  आप गणनायक को नमस्कार हैं।  आप स्वानन्दलोक  के वासी हैं और सिद्धि - बुद्धि के प्राण बल्लभ हैं।  आप की नाभि में भूषण रूप से शेषनाग विराजते हैं।  आप ढुंढिराज देवता को नमस्कार है।  आप के हाथों में  वरद और अभय की मुद्राएं हैं। आप परशु धारण करते हैं। आपके हाथ में अंकुश शोभा पता है। नाभि में नागराज ,आपको नमस्कार है।  आप रोग रहित सर्वस्वरूप और सबके पूज्य्नीय है आपको नमस्कार है।  आप ही सगुण और निर्गुण ब्रह्म हैं,आपको नमस्कार है।  आप प्रथम पूजनीय ,जेष्ठ और जेष्ठराज हैं ,आपको नमस्कार है। सबके माता - पिता हेरम्ब !को बारम्बार नमस्कार है।  विघ्नेस्वर आप अनादि और विघ्नों के भी जनक हैं।  आपको बारम्बार नमस्कार है।  लम्बोदर ! आप अपने भक्तों का विघ्नहरण करने वाले हैं ,आपको बारम्बार नमस्कार है।  योगिश्वरगण आपके भक्ति योग से शांति को प्राप्त हुए हैं।  योगस्वरूप! आपकी हम दोनों क्या स्तुति करें। आप विघ्नराज को हम दोनों प्रणाम करते हैं।  स्वामिन ! इस प्रणाम मात्र से आप  संतुष्ट हों। 
         ऐसा कहकर शिवा - शिव ने गणेश को प्रणाम किया।  तब उन दोनों को उठाकर गणाधीश ने कहा - आप दोनों द्वारा किया गया यह स्तवन मेरी भक्ति को बढ़ने वाला है।  जो इसका पठन और श्रवण करेगा उसके लिए यह सुखप्रद होगा। इसके अतिरिक्त यह भोग और मोक्ष , पुत्र और  पौत्र आदि को भी देने वाला होगा।  मनुष्य इस स्त्रोत के द्वारा धन -धान्य  आदि सभी वस्तुएँ निश्चित प्राप्त कर लेगा।  
         अंगदेश के एक प्रसिद्ध नगर  में   रुद्रकेतु नामक एक वेदज्ञ ब्राह्मण निवास करते थे।  वे अग्नहोत्री सर्वगाम विशारद ,सुर -गो -द्विज -पूरक एवं इशरोपासक थे।  उनकी अनुपम रूप लावण्य संपन्न ,सदाचारणी  पत्नी का नाम शारदा था।  कुछ दिनों बाद सती  शारदा गर्भवती हुयी। पत्नी ने अत्यधिक प्रीति के कारण उसके विश्व बुद्धि संपन्न पति ने उसका प्रत्येक मनोरथ पूर्ण किया।  
         इसप्रकार पतिपरायण शारदा के गर्भ से नावै मास में अत्यंत कांतिमान दो पुत्र उत्पन्न हुए।  विशाल नेत्रों वाले अजानुभाऊ सुंदर पुत्रों को देखकर रुद्रकेतु अत्यंत हर्षित हुआ। उन्होंने मन ही मन कहा -मेरा मनुष्य जीवन और मेरी तपस्या धन्य है। आज मेरा वंश धन्य हो गया। जो मुझे अलौकिक दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुयी। 
            रुद्रकेतु ने अर्ध -आदि द्वारा ब्राह्मणों का आदर सत्कार किया। उन्होंने आदि देव मंगलमूर्ति श्री गणेश की पूजा तथा स्वाति वचन करवाया।  ब्राह्मणों द्वारा मात्र का पूजन भक्तिपूर्वक ,श्राद्ध एवं जातक कर्म आदि संस्कार  करवाया।  उन्होंने अत्यंत भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों की पूजा की और उन्हें धन एवं रत्नो का दान किया। अनेक प्रकार के  सुखद वाद्य बजवाये और घर - घर शर्करा वितरण करवाया। 
          रुद्रकेतु के आमंत्रण पर ज्योतिषी आये। रुद्रकेतु ने उनका सत्कार किया।  देवज्ञों ने बालको का नाम देवान्तक और नरान्तक रखते हुए कहा - निशन्देह ये बालक परमपराक्रमी सिद्ध होंगे।  
           देवान्तक और नरान्तक परम सुन्दर एवं तेजस्वी बालक थे।  उनकी मनोहारिणी बाल क्रीड़ा से माता -पिता मन ही मन  प्रसन्न होकर अपने भाग्य की सराहना करते। माता - पिता ही नहीं उन दोनों की सुन्दर मुखाकृति ,सुन्दर देह एवं सुन्दर मुस्कान देखकर सभी लोग उनकी ओर आकृष्ट हो जाते थे।  उनकी बाल लीलाएँ मनोहर ही नहीं  साहस पूर्ण भी होती। यह देखकर सभी चकित होते और मन ही मन कहते ये दोनों बालक निश्चित ही महान पराक्रमी  ,साहसी और यशस्वी होंगे। शारदा के पुत्रों की प्रसंसा सुनकर उन्हें देखने के लिए कितने ही लोग रुद्रकेतु के घर जाया  करते थे। 
        तपस्वी रुद्रकेतु के पुत्रों की प्रसंसा सुनकर महामुनि नारद उनके यहाँ पधारे। रुद्रकेतु  और उनकी पत्नी शारदा ब्रह्म पुत्र देवर्षि नारद के चरणों में अत्यंत श्रद्धा पूर्वक प्रणाम कर उन्हें आसान दिया। उन्होंने अर्ध -आदि से उनकी विधिवत और फिर अपने दोनों पुत्रों को बुलाकर उन्हें प्रणाम करवाया। 
         देवर्षि ने उन बालकों को ध्यानपूर्वक देखा और फिर रुद्रकेतु से कहा - मैं आपके इन पुत्रों की प्रसंसा सुनकर ही उन्हें  देखने आया हूँ।  ये बालक वीर , धीर ,परक्रमी ,त्रिलोक्य विजयी एवं यशस्वी होंगे।  आप भाग्य शाली है जो आपके यहाँ ऐसे पुत्र उत्पन्न हुए।  
          ब्रह्म पुत्र के ऐसे वचन सुनकर सपत्नी रुद्रकेतु अत्यंत प्रसन्न हुए।  उन्होंने विनय पूर्वक देवर्षि से कहा - मुनिवर आप इन बच्चों पर  अनुग्रह करें। ये बालक बलवीर एवं ज्ञान -विज्ञान संपन्न दीर्घजीवी हों।  ये शत्रुओं  को पराजित करने वाले हों। तथा त्रिलोक्य व्यापिनी कीर्ति अर्जित करें।  
             मुनिवर रुद्रकेतु एवं उनकी पत्नी शारदा के श्रद्धा पूर्वक वचन सुनकर देवर्षि ने उन बालकों के मस्तक पर अपना वरद हस्त फेर कर  कहा- ये देवान्तक और नरान्तक तपश्चरण के द्वारा देवाधिदेव महादेव को संतुष्ट करें। महा मुनि नारद ने उन्हें पंचाक्षरी मन्त्र नमः शिवाय   का उपदेश भी कर दिया।  फिर वे अपनी वीणा पर मधुर हरी नाम का कीर्तन करते हुए ब्रह्मलोक के लिए प्रस्थान कर गए। 
             देवान्तक और नरान्तक ने माता -पिता के चरणों में प्रणाम किया और फिर उनकी अनुमति प्राप्त कर भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिए  तप करने हेतु एकांत वन में पहुंचे।  वहां विशाल गिरिकन्द्रायें थे। पत्र -पुष्प और लता जाल से मंडित अत्यंत शांत वन प्रदेश था। समीप ही झरने से सदा जल बहता रहता था।  दोनों मुनिकुमारों ने  वहां शिव की आराधना करने का निश्चय किया। 
          मुनिवर रुद्रकेतु  के  पुत्र देवान्तक और नरान्तक एक पैर के अंगूठे पर स्थिर भाव से खड़े हो गए। वे पार्वती बलल्भ शिव का ध्यान करते हुए देवर्षि प्रदत्त महिमा में पंचाक्षरी मन्त्र का जप करने लगे। इस प्रकार भगवान् शशांक शेखर का ध्यान एवं उनके मन्त्र का जप करते हुए उन दोनों  बालकों ने दो सहस्त्र वर्षों तक केवल वायु का ही आहार किया। फिर एक हजार वर्ष तक केवल सूखे पत्ते खाकर ही वे तप में लगे रहे। इस प्रकार उन अद्भुत मुनिकुमारों ने  दस सहस्त्र  वर्षों तक अनेक कष्ट सहते हुए उमा नाथ शिव के पावनतम मन्त्र का जप किया फल स्वरूप उनका पांच भौतिक कलेवर दीप्तिमान हो उठा। उनके तेज के  सम्मुख प्रभाकर की प्रभा मंद पड़ने लगी।  
          उनकी तपस्या से भक्त वत्सल करुणामूर्ति आशुतोष प्रसन्न हुए।  कर्पूरगौर , नीलकंठ ,पंचमुख, त्रिलोचन , दसबाहु ,गंगाधर प्रकट हुए।  उनके मंगलमय कंठ में फणिहर मुंडमाला एवं दाहिने कर कमल में डमरू सुशोभित था। देवाधिदेव चंद्रशेखर के मंगल कर अंगों पर ना -ना प्रकार के अलंकार शोभा पा रहे थे।  
         देवान्तक और नरान्तक ने जब गिरिजा- मन - मानस - मराल का दर्शन किया। तब वे आन्दित होकर नृत्य करने लगे।  सफल मनोरथ मुनि कुमारों  ने नृत्य के बाद पृथ्वी पर लेट कर त्रिपुरारी के चरण कमलों में प्रणाम किया। फिर उन्होंने वन्दनजलि होकर विषम विलोचन शिव की स्तुति करते हुए कहा -
          देवों के देव प्रभो ! हम आपकी मनवानी से अगोचर देव दुर्लभ मञ्जुलमुर्ति के दर्शन कर रहे हैं। अतः हमारे पितर , वंश , जीवन ,जन्म ,देह ,नेत्र और तप सभी सफल हुए और सभी ध्यान हुए।  सनकादिक मुनि एवं सहत्र वर्धन शेष भी आपकी  स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं। आप सर्वथा दीन - हीन को सर्वांग सुन्दर , धनी एवं अत्यंत गरीब को  राजा बना सकते हैं। आप मृतक को जीवित और जीवित को मृतक करने में समर्थ हैं।  महिमा में करुणाकरण  आपके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।  आप हम पर कृपा करें। 
        मैं तुम्हारे तप एवं स्तवन से संतुष्ट हूँ। प्रसन्न होकर सर्वसौभाग्यमूल बृषभध्वज ने मुनि रुद्रकेतु के पुत्रों से कहा - तुम अभीष्ट वर माँगो। 
        देवो के देव! सर्वेस्वर! यदि आप हमारे तप से संतुष्ट हैं तो कृपा पूर्वक वर   प्रदान कीजिये।  देवान्तक और नरान्तक ने हर्ष - गदगद वाणी में वर याचना की - देवेंद्र ! असुर ,मनुष्य ,यक्ष,शस्त्रों से , पशु ,ग्रह , नक्षत्र ,भूत  , सर्प  ,कृमि, कीट ,वन या ग्राम में हमारी मृत्यु  न हो।  देवेश्वर ! आप हमें त्रिलोक का राज्य एवं अपने चरणों की भक्ति प्रदान करें। 
       भगवान् भूतनाथ ने अपना पाणि पंकज देवान्तक और नरान्तक के मस्तक पर फेरते हुए कहा - तुम्हारी समस्त कामनायें पूरी होंगी।  तुम लोग त्रिलोकी पर शासन करते हुए सृष्टि के सभी प्राणियों से नर्भय रहोगे। 
           यह वरदान दे आशुतोष अंतर्ध्यान हो गए। 

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