गूगल से साभार
जिनकी अंग कान्ति शारदीय चन्द्रमा के समान उज्जवल है, जो उत्तम रत्न द्वारा निर्मित मकराकृति कुण्डल और हार से विभूषित हैं ,जिनके गहरे नीले हजारों हाथ दिवायुद्धों से संपन्न है तथा चरण लाल कमल की कान्ति सदृश्य हैं ,ऐसी आप परमेश्वरी का मैं प्रातः काल स्मरण करता हूँ।
जिनकी अंग कान्ति शारदीय चन्द्रमा के समान उज्जवल है, जो उत्तम रत्न द्वारा निर्मित मकराकृति कुण्डल और हार से विभूषित हैं ,जिनके गहरे नीले हजारों हाथ दिवायुद्धों से संपन्न है तथा चरण लाल कमल की कान्ति सदृश्य हैं ,ऐसी आप परमेश्वरी का मैं प्रातः काल स्मरण करता हूँ।
जो महिषासुर ,चण्ड - मुण्ड ,शुम्भासुर आदि प्रमुख दैत्यों का विनाश करने में निपुण हैं। लीला पूर्वक ब्रह्मा ,इंद्र ,रूद्र और मुनियों को मोहित करने वाली हैं।समस्त देवताओं की मूर्ति रूप हैं तथा अनेक रूपों वाली हैं। उन चण्डी को मैं प्रातः काल नमस्कार करता हूँ।
जो भजन करने वाले भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण करने वाली, समस्त जगत का धारण - पोषण करने वाली ,दुष्टों का नाश करने वाली, संसार बंधन के विमोचन की हेतुभुता तथा परमात्मा विष्णु की परामाया हैं उनका ध्यान करके मैं प्रातः काल भजन करता हूँ।
शिवजी माता पार्वती से कहते हैं कि हे देवी! आप अपने भक्तों से अपार स्नेह करती हैं ,आप उनके लिए कोई ऐसा सरल उपाय बतायें कि कलयुग में आपके भक्त आप की सहज आराधना द्वारा ही अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सकें।
देवी ने कहा - हे देव ! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। कलयुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बताऊँगी ,सुनो ! उसका नाम अम्बा स्तुति है।
इस दुर्गा सप्तश्लोकी स्त्रोत मन्त्र के नारायण ऋषि हैं। अनुष्टुप छंद है ,श्री महा काली ,श्री महा लक्ष्मी और श्री महा सरस्वती देवता हैं। श्री दुर्गा की प्रसन्ता के लिए सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ में इसका विनियोग किया जाता हैं। वे भगवती महा माया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक खींच कर मोह में डाल देती हैं।
माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख ,दलिद्रता और भय हरने वाली देवी ! आपके सिवा दूसरी कौन हैं ? जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दया पूर्ण रहता है।
नारायणी ! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली ,शरणागत वत्सला ,तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।
शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली शरणगत वत्सला तथा सब की पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी ,तुम्हें नमस्कार है। सर्वस्वरूपा सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से संपन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी ! सब भयों से हमारी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार हैं।
देवी ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो ,तथा कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं।
सर्वेश्वरी ! तुम इसी प्रकार तीनों लोको की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।
दुर्गासप्तसती के अनुसार भगवान शिव ने देवी पार्वती को सप्तसती पाठ के लिए सिद्ध कुंजिका स्त्रोत की महिमा के विषय में बताते हुए कहा -
देवी! सुनो- मैं उत्तम कुंजिका स्त्रोत का उपदेश करूँगा। जिस मन्त्र के प्रभाव से देवी का पाठ सफल होता है।
कवच ,अर्गला , कीलक ,रहस्य ,सूक्त ,ध्यान ,न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है। केवल कुंजिका के पाठ से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। यह अत्यंत गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है।
हे पार्वती ! इसे स्वयोनि कि भांति प्रयत्न पूर्वक गुप्त रखना चाहिए। यह उत्तम कुंजिका स्त्रोत केवल पाठ के द्वारा मारण ,मोहन ,वशीकरण, स्तंभन और उच्चाटन आदि उद्देशयों को सिद्ध करता है।
मन्त्र - ॐ ऐ ं हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल एें ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट स्वाहा।।
हे रूद्र स्वरूपणी ! तुम्हें नमस्कार है ,हे मधुदैत्य को मरने वाली तुम्हें नमस्कार है। कैटभ विनाशनी को नमस्कार है। महिषसुर को मरने वाली देवी ! तुम्हें नमस्कार है। शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मरने वाली ! तुम्हें नमस्कार है। हे महादेवी ! मेरे जप को जाग्रत और सिद्ध करो। ''एेकार '' के रूप में सृष्टिस्वरूपणी, ''ह्रीं '' के रूप में सृष्टि पालन करने वाली 'क्लीं ' के रूप में कामरुपिणि तथा निखिल ब्रह्माण्ड की बीज रूपिणी देवी ! तुम्हें नमस्कार है। चामुण्डा के रूप में चण्डविनाशिनी और 'यौकार' के रूप में वर देने वाली हो। 'विच्चे' रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो। तुम इस मन्त्र का स्वरूप हो। ' धां धीं धूं ' के रूप में धूर्जटी ( शिव) - की तुम पत्नी हो। ' वां वीं वूं ' के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। ' क्रां क्रीं क्रूं ' के रूप में कलिका देवी ,' शां शीं शूं " के रूप में मेरा कल्याण करो।। ' हुं हुं हुंकार ' स्वरूपिणी 'जं जं जं ' जम्भनादिनी , 'भ्रां भ्रीं भ्रूं ' के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी ! तुम्हें बार - बार प्रणाम।
' अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐ ं वीं हं क्षं धिजग्रं धिजाग्रं ' इन सब को तोड़ो और दीप्त करो, करो स्वाहा।''पां पीं पूं ''के रूप में तुम पार्वती पूर्ण हो। '' खां खीं खूं ''के रूप में के रूप में तुम खेचरी आकाशचारिणी अथवा खेचरी मुद्रा हो। ' सां सीं सूं ' स्वरूपणी सप्तसती देवी के मन्त्र को मेरे लिए सिद्ध करो।
यह कुंजिका स्त्रोत मन्त्र को जगाने के लिए है। इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिए। हे पार्वती ! इसे गुप्त रखो। हे देवी ! जो बिना कुंजिका के सप्तसती का पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है।
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