गूगल से साभार चित्र
दुर्गा सप्तसती के अनुसार राजा सुरथ ने अपने मंत्रियों के द्वारा राज्य छीन लिए जाने के कारण जंगल में मेघा ऋषि के आश्रम में शरण ली और वैश्य समाधि के अपने पुत्रों एवं अपनी पत्नी के द्वारा घर से निकले जाने से मेघा ऋषि के आश्रम में पहुंचने पर एक दूसरे से परिचय प्राप्त किया। अपने दुःख को मेघा ऋषि के सामने व्यक्त करने पर ऋषि द्वारा उन्हें बताया गया की यह सब माया भगवती आदिशक्ति की लीला है। इस पर उन दोनों द्वारा आदिशक्ति के चरित्र के विषय में पूछे जाने पर मेघा ऋषि ने उन्हें भगवती आदि शक्ति माँ दुर्गा के विभिन्न रूपों की महिमा का गुणगान करते हुए दैत्यराज महिषासुर के वध के विषय में सुनते हुए कहा -
जगदम्बा के श्री अंगों की कांति उदय काल के सहस्त्रों सूर्यों के समन है। वे लाल रंग की रेशमी साडी पहने हुए हैं। उनके गले में मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनों पर रक्त चन्दन का लेप लगा है। वे अपने करकमलों में जप मालिका ,विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। तीन नेत्रों से सुशोभित मुखार विन्द की बड़ी शोभा हो रही है। उनके मस्तक पर चन्द्रमा के साथ ही रत्न में मुकुट बंधा है तथा वे कमल के आसन पर विराजमान है। ऐसी देवी को मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता हूँ।
ऋषि कहते हैं- दैत्यों की सेना को इस प्रकार तहस - नहस होते देख महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रोध में भरकर अम्बिका देवी से युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। वह असुर रणभूमि में देवी के ऊपर इस प्रकार वाणों की वर्षा करने लगा जैसे बादल मेरुगिरि के शिखर पर पानी की धार वर्षा रहा हो। तब देवी ने अपने वाणों से उसके वाण समूह को अनायास ही काट कर उसके घोड़ों और सारथियों को भी मार डाला। साथ ही उसके धनुष तथा अत्यंत ऊँची ध्वजा को भी तत्काल काट गिराया। धनुष कट जाने पर उसके अंगों को अपने वाणों से बींध डाला। धनुष ,रथ ,घोड़े और सारथी के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की ओर दौड़ा। उसने तीखी धार वाली तलवार से सिंह के मस्तक पर चोट करके देवी की भी बायीं भुजा में वेग से प्रहार किया। राजन ! देवी की बाँह पर पहुंचते ही वह तलवार टूट गयी फिर तो क्रोध से लाल आँखे करके उस राक्षस ने शूल हाथ में लिया और उसे उस महदैत्य ने भगवती भद्रकाली के ऊपर चलाया। वह शूल आकाश से गिरते हुए ,सूर्यमण्डल को भांति अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा।
उस शूल को अपनी ओर आते देख देवी ने भी शूल का प्रहार किया। उससे राक्षस के शूल के सौकड़ों टुकड़े हो गए। साथ ही महादैत्य चिक्षुर की भी धज्जियां उड़ गयी। वह प्राणों से हाथ धो बैठा।
महिषासुर के सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुर के मारे जाने पर देवताओं को पीड़ा देने वाला चामर हाथी पर चढ़कर आया। उसने भी देवी के ऊपर शक्ति का प्रहार किया। किन्तु जगदम्बा ने उसे अपने हुंकार से ही आहत एवं निष्प्रभ करके तत्काल पृथ्वी पर गिरा दिया। शक्ति टूटकर गिरी हुयी देख चमार को बड़ा क्रोध हुआ। अब उसने शूल चलाया ,किन्तु देवी ने उसे भी अपने वाणों द्वारा काट दिया। इतने में देवी का सिंह उछल कर हाथी के मस्तक पर चढ़ बैठा और उस दैत्य के साथ खूब जोर लगाकर बाहुयुद्ध करने लगा। वे दोनों लड़ते - लड़ते हाथी से पृथ्वी पर आ गए और अत्यंत क्रोध में भरकर एक - दूसरे पर बड़े भयंकर प्रहार करते हुए लड़ने लगे। तदनन्तर सिंह बड़े वेग से आकाश की और उछला और उधर से गिरते समय उसने पंजों की मार से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसीप्रकार उदग्र भी शिला और वृक्ष आदि की मार खाकर रण भूमि में देवी के हाथों से मारा गया तथा कराल भी दांतों ,मुक्कों और थप्पड़ो की चोट से धराशायी हो गया। क्रोध में भरी हुयी देवी ने गदा की चोट से उद्धत का कचूमर निकाल डाला। भिन्दिपाल से बाश्कन को तथा वाणों से ताम्र और अंधक को मौत के घाट उतार दिया। तीन नेत्रों वाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य , उग्रवीर्य तथा महाहनुः नामक दैत्यों को मार डाला। तलवार की चोट से विडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया। दुर्धर और दुर्मख इन दोनों को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया।
इस प्रकार अपनी सेना का संहार होता देख महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण करके देवी के गणों को त्रास देना आरम्भ किया। किन्हीं को थूथन से मरकर। किन्हीं के ऊपर खुरों का प्रहार करके ,किन्हीं - किन्हीं को पूछ से चोट पहुंचकर ,कुछ को सींगो विदीर्ण करके ,कुछ गणों को वेग से ,किन्ही को सिंहनाद से ,कुछ को चक्कर देकर और कितनों को निःश्वास - वायु के झोकों से धराशाही कर दिया। इस प्रकार गणों की सेना को गिराकर वह असुर महादेवी के सिंह को मरने के लिए झपटा। इससे जगदम्बा को बड़ा क्रोध हुआ। उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा। तथा अपने सींगो से ऊंचे - ऊँचे पर्वतों को उठाकर फेंकने और गर्जने लगा। उसके वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्द होकर फटने लगी। उसकी पूछ से टकराकर समुद्र सब ओर से धरती को डुबोने लगा।
हिलते हुए सिंहों के आघात से विदीर्ण होकर बादलों के टुकड़े - टुकड़े हो गए। उसके श्वास की प्रचंड वायु के वेग से उड़े हुए सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे। इसप्रकार क्रोध में भरे हुए उस महादैत्य को अपनी ओर आते देखकर चंडिका ने उसका वध करने के लिए महा क्रोध किया। उन्होंने पाश फेंककर उस महा दैत्य को बांध लिया। उस महासंग्राम में बंध जाने पर उसने भैंसे का रूप त्याग दिया और तत्काल सिंह के रूप में वह प्रकट हो गया। उस अवस्था में जगदम्बा ज्यों ही उसका मस्तक काटने के लिए उद्यत हुयी ,त्यों ही वह खड्गधारी पुरुष के रूप में दिखाई देने लगा। तब देवी ने तुरंत ही वाणों की वर्षा करके ढाल और तलवार के साथ उस पुरुष को भी बींध डाला। इतने में ही वह महान गजराज के रूप में परिणित हो गया। तथा अपनी सूंड से देवी के विशाल सिंह को खींचने और गर्जने लगा। खींचते समय देवी ने तलवार से उसकी सूंड काट डाली। तब उस दैत्य ने पुनः भैंसे का शरीर धारण कर लिया और पहले की ही भांति चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को व्याकुल करने लगा। तब क्रोध में भरी हुयी जगन्माता चंडिका बारम्बार उत्तम मधु का पान करने और लाल आँखे कर के हंसने लगी। उधर वह बल और पराक्रम के मद से उन्मत्त हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगों से चंडी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा। उस समय देवी अपने वाणों के समूह से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर्ण करती हुयी बोली - बोलते समय उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था। और वाणी लड़खड़ा रही थी।
देवी ने कहा - ओ मूढ़ ! मैं जब तक मधु पीती हूँ ,तब तक तू क्षण भर के लिए खूब गरजले। मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे।
ऋषि कहते हैं - यों कहकर देवी उछली और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गयी। फिर अपने पैरों से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कंठ में आघात किया। उनके पैरों से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुख से आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया था की देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया। आधा निकला होने पर भी वह महदैत्य देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया। फिर तो हाहाकार करती हुयी दैत्यों की सारी सेना भाग गयी। तथा सम्पूर्ण देवता अत्यंत प्रसन्न हो गए।
देवताओं ने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गा देवी का स्तवन किया। गंधर्वराज गाने लगे तथा अप्सराएं नृत्य करने लगी।
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