देवान्तक और नरान्तक के कठोरत्तम क्रूर शासन में समस्त देव समुदाय और ब्राह्मण अत्यंत भयभीत होकर कष्ट भोग रहे थे।  वे आधिर व अशांत हो गए थे।  दुष्ट - दैत्यों के भार से पीड़ित धरती कमलासन के पास पहुंची। हाथ जोड़कर अश्रु बहते हुए ,पृथ्वी ने चतुर्मुख से निवेदन किया। समस्त देवताओं सहित सहरत्रात और ऋषिगण गिरी - गुफांओं में छिप कर यातनाएँ पा  रहे हैं। यज्ञ ,व्रत आदि स्थगित हो गए हैं।  दानवकुल के असह भार से दुःखी होकर मैं आपकी शरण में आयी हूँ। आप दुष्ट दैत्यों के विनाश का यत्न कीजिये।  अन्यथा मैं वनों ,पर्वतों और सृष्टि के समस्त प्राणियों सहित रसातल में चली जाउंगी।  
   
          स्वयं मैं समस्त लोकपाल ,इन्द्रादि देवगण  और ऋषिगण ,स्वधा  -  स्वाहा रहित हो अतिशय दुःख पा  रहें हैं। विधाता ने धरती की वाणी सुनकर कहा - देवी ! हम सभी स्थान मन्त्र और आचार से भ्र्ष्टप्राय हो गए हैं।  अतेव इस विपत्ति से त्राण पाने के लिए हम सभी करुणामय देव - देव विनायक की प्रार्थना करें। 
 
         ब्रह्मा के वचन सुनकर आदिदेव विनायक को संतुष्ट करने के लिए उनके साथ पृथ्वी ,देवता ,ऋषिगण हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।  

      हे सर्वेश्वर ! आपको नमस्कार है।  हे सर्वलोकधार प्रभो! आपको नमस्कार है।  हे निखिल सृष्टि के कर्त्ता एवं निखिल सृष्टि के संहारक आपको नमस्कार है।  देव शत्रुओं के विनाशक एवं भक्तों का पाश नष्ट करने वाले प्रभो ! आपको नमस्कार है।  आप अपने भक्तों का पोषण करते एवं उनकी थोड़ी सी भक्ति से  संतुष्ट हो जाते हैं आपको नमस्कार है। आप निराकार और परात्पर ब्रह्म स्वरूप क्षर - अक्षर से अतीत , सप्तगुण आदि से रहित एवं दीन -जनों पर अनुकम्पा करने वाले हैं। आपको बार -बार नमस्कार है। आप निरा में सम्पूर्ण कामनाओं से पूर्ण ,निरंजन सम्पूर्ण दैत्यों का दलन करने वाले नित्य , सत्य ,परोपकारी और सर्वत्र समरूप से निवास करते हैं। आपको हमारा बारम्बार नमस्कार है। 

          इसप्रकार स्तवन करते हुए देवता और मुनियों ने दुःख से अत्यंत व्याकुल होकर पुनः विनायक की स्तुति करते हुए कहा। 

           देव ! सम्पूर्ण जगत हा-हा कार से व्याप्त  एवं स्वधा और स्वहा से रहित हो गया है।  हम सब पशुओं की तरह सुमेरु पर्वत की कंदराओं में रह रहे हैं। अतेव हे विश्वेश्वर ! आप इन महादैत्यों का विनाश करें। इस प्रकार करुण प्रार्थना करने पर देवताओं और ऋषियों ने आकाशवाणी सुनी। 

             सम्प्रति देव - देव गणेश महर्षि कश्यप के घर में अवतार लेंगे और अदभूत कर्म करेंगे। वे ही आप लोगों को पूर्व पद भी प्रदान करेंगे। वे दुष्टों का संहार एवं साधुओं का पालन करेंगे।  

            देवी ! तुम धैर्य धारण करो। आकाशवाणी से आश्वस्त होकर पद्ययोनि ने धरती से कहा। समस्त देवता पृथ्वी पर आएंगे। और निशंदेह महा प्रभु विनायक अवतार ग्रहण कर तुम्हारा कष्ट निवारण करेंगे। 
  
             पृथ्वी ,देवता तथा मुनिगण विधाता के वचन से प्रसन्न होकर अपने -अपने स्थानों को चले गए।  
             
             कुछ समय बाद कश्यप पत्नी अदिति ने गर्भ धारण किया। उनके शरीर का तेज दिनों -दिन बढ़ने लगा।  इसप्रकार नौ मास पूरे होने पर शुभ महूर्त मंगलमय बेला में महाभाग अदिति के सम्मुख अदभूत ,अलौकिक परमतत्व प्रकट हुआ। 

              वह अत्यंत बलवान था। उसकी दस भुजाएँ थी। कानों में कुण्डल ,ललाट पर कस्तूरी का शोभाप्रद तिलक और मस्तक पर मुकुट सुशोभित था।  सिद्धि - बुद्धि साथ थी और कंठ में रत्नों की माला शोभा पा रही थी।  वक्ष पर चिंतामणि की अद्भुत  सुषमा थी और अधर जपापुष्प के सामान अरुण थे।  नासिका ऊँची थी और सुन्दर भृकुटि के सहयोग से ललाट की सुंदरता बढ़ गयी थी।  वह दांत से दीप्तिमान था उसकी अपूर्वदेहकांति अंधकार को नष्ट करने वाली थी। उस शुभ बालक ने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा था। 

             महिमामयी अदिति ने उस अलौकिक सौंदर्य को देख कर चकित आनंद विभोर हो रही थी। उस समय परम तेजस्वी अद्भुत बालक ने कहा - माता ! तुम्हारी तपस्या के फल स्वरूप मैं तुम्हारे यहाँ पुत्ररूप से आया हूँ।  मैं दुष्ट दैत्यों का संहार कर साधु पुरुषों का हित एवं तुम्हारी कामनाओं की पूर्ति करूँगा।  
 
               आज मेरे अद्भुत पुण्य उदित हुए जो सक्षात गजानन मेरे यहाँ अवतरित हुए।  हर्षित माता अदिति ने विनायक  देव से कहा  - यह मेरा परम सौभाग्य है जो चराचर में व्याप्त निराकार नित्यानन्दमय सत्य स्वरूप परब्रह्म परमेश्वर गजानन मेरे पुत्ररूप में प्रकट हुए।  किन्तु अब आप इस आलौकिक एवं परमदिव्य रूप का उपसंहार कर प्रकृत बालक की भांति क्रीड़ा करते हुए मुझे पुत्र सुख प्रदान करें।  तत्क्षण अदिति के सम्मुख अत्यंत  ह्रष्ट -पुष्ट ,सशक्त बालक धरती पर तीव्र क्रंदन करने लगा। उसके रुदन की ध्वनि आकाश -पाताल और धरती पर दासों दिशाओं में व्याप्त हो गयी। उस अद्भुत बालक के रोदन से धरती कांपने लगी।  नीरस वृक्ष सरस हो गए । देव समुदाय सहित इंद्र आनंदित और दैत्यगण भयभीत हो गए।  

             महर्षि कश्यप की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। उन्होंने हर्ष पूर्वक शास्त्र विधि से बालक का जातकर्म संस्कार करवाया।  नाल छेदन आदि कराये। उन्होंने ब्राह्मणों और मुनियों के विविध प्रकार के तुष्टिकर दान दिए और घर - घर   मधुर बायान भिजवाए। 
               
              महर्षि कश्यप की पत्नी के अंक में बालक आया जानकर ऋषि -मुनि एवं ब्रह्मचारी आदि आश्रमवासी तथा देवगण सभी प्रसन्न थे।  बालक अद्भुत और तेजस्वी तो था ही वह अत्यन बलवान था। उसकी मासपेशियां सुदृढ़ थी एवं उसका दीप्तिमय मुख प्रभावशाली था। बालक के स्वरूप के अनुसार पिता कश्यप ने उसका नामकरण किया - महोत्कट   .........     
  
           

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