देवता बोले गणेश्वर ! आप गज के समान मुख धारण करने वाले पूर्णपरमात्मा और ज्ञान स्वरुप हैं।  आप निराकार रूप से सर्वत्र विराजमान है। आपको बारम्बार नमस्कार है।  हे रम्भ ! आपको किन्हीं प्रमाणों द्वारा मापा नहीं जा सकता।  आप परशु धारण करने वाले हैं , आप का वहन मूसक है। आप विश्वेश्वर  को बारम्बार नमस्कार है।  आप का वैभव अनंत है।  आप परात्पर हैं। भगवान शिव के पुत्र और स्कन्द के बड़े भाई हैं। देव ! आपको नमस्कार है। 
      पार्वती को आनंदित करने वाले उनके लाडले लाल है।  देवताओं के रक्षक हैं और जिनका श्री विग्रह सब के लिए पूज्य्नीय है। आपको  बारम्बार नमस्कार है।  भगवान शिव के कुल देवता आप अपने स्वरुपभूत स्वानंद धाम में निवास करते हैं।  विष्णु आदि देवताओं के तो आप विशेष रूप से कुल देवता है।  आपको नमस्कार है।  आप योग स्वरूप एवं सब को योग जनित शांति प्रदान करते हैं।  ब्रह्मभाव की प्राप्ति कराने वाले आप ब्रह्मेश्वर को नमस्कार है।  नाथ ! आप सिद्धि और बुद्धि के प्राण पति तथा सिद्धि और बुद्धि प्रदान करने वाले है।  आप माया के अधिपति तथा मायावियों को मोह में  डालने वाले हैं आप को बारम्बार नमस्कार है।  आप लम्बोदर हैं। जठरानल रूप से सबके उदर में निवास करते है।  आप पर किसी की माया नहीं चलती।  आप ही माया के आधार हैं। आप को बारम्बार नमस्कार है।  

        विघ्नराज ! गज सबका बीज है। उस बीज रूप चिन्ह से ही योगीजन आपको पहचानते तथा आपका सारूप्य प्राप्त कर लेते हैं। गजानन ! उस बीज रूप गज चिन्ह के कारण  ही आप  गजमुख कहलाते है।  हम आपकी क्या स्तुति कर सकते हैं ? आपकी स्तुति करने में तो वेद आदि शास्त्र तथा शंकर आदि देवेश्वर भी कुंठित हो जाते हैं। शुक्र आदि विद्वान और शेष आदि नाग भी आपके स्तवन में समर्थ नहीं हैं।  तथापि आपके दर्शन रूप स्फूर्ति से हमने आपका स्तवन कर लिया। 

भगवान आशुतोष से वरदान पाकर देवान्तक और नरान्तक घर लौटे। उन्होंने अपने माता -पिता के चरणों में प्रणाम कर  उन्हें अपने तप , शिव दर्शन एवं वर प्राप्ति का विवरण सुनाया।  

         तुम लोगो ने अपने जीवन को पवित्र एवं कुल को यशस्वी किया है।  पुत्रों के मस्तक को सूंघकर  पिता ने उन्हें अपने अंक में भर लिया।  

          हर्षित मुनि रुद्रकेतु और उनकी पतिपरायण सहधर्मिणी शारदा ने ब्राह्मणों एवं तपस्वियों को आदर पूर्वक आमंत्रित कर उनकी पूजा की।  उन्हें सुन्दर सुस्वाद भोजन कराकर अनेक प्रकार की बहुमूल्य दक्षिणा प्रदान की। ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर रुद्रकेतु के यशस्वी पुत्रों को आशीर्वाद दिया और ब्राह्मण  दक्षिणा की प्रसंसा करते हुए अपने - अपने आश्रमों में प्रस्थान कर गए।  

           भुजगेंद्रहार शिव के वर  प्रभाव से त्रिलोक्य विजयी देवान्तक और नरान्तक अत्यंत शक्तिशाली और परक्रमी हो गए।  एक दिन देवान्तक ने भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों की  पूजा की। उन्हें पुष्कल दक्षिणा से संतुष्ट कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। फिर उसने अपने भाई नरान्तक से कहा - भगवान् शंकर के वरदान से मैं स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने जाता हूँ। तुम मृत्युलोक और पाताल को अपने आधीन कर लो। 

           देवान्तक शुभ दिन और शुभ महूर्त देखकर अमरावती पर जा चढ़ा। वहाँ पर वह नंदनवन को नष्ट करने लगा।  देवताओं ने उससे युद्ध किया। पर वे सभी पराजित हो गए। स्वयं बज्रायुध शशिपति ने उसका सामना किया। परन्तु देवान्तक के पौरुष के सम्मुख वे टिक न सके।  उनका कठोर बज्र खंडित हो गया।  सुरेंद्र  ने यत्न पूर्वक प्राण रक्षा की।  देवताओं ने भागकर सुमेरुगिरि में शरण ली।  वे कंद -मूल का आहार करते हुए, दुःख पूर्वक जीवन व्यतीत करने को विवश हुए। 

           पृथ्वी से असंख्य असुर स्वर्ग पहुंचे। उन असुरों और अधीनस्थ सुरो को देवान्तक ने धन व अलंकार  प्रदान किये।  अनेक तीर्थों से जल आये।  शंख ,भेरी ,दुंदुभि  और मृदंग आदि  वाद्य बजने लगे। ऋषियों ने मन्त्र पाठ करते हुए वीरवर देवान्तक को स्वर्गाधिपति पद पर अभिषित किया।  

         इधर असुर सैन्य लेकर   नरान्तक ने पृथ्वी के नृपतियों पर आक्रमण कर दिया। कितने नरेश पराक्रमी असुर के हाथों मरे गए और कितने राजाओं ने उसकी शरण ग्रहण कर ली।  प्रबल असुर के आतंक से कितने नरपाल अपना राज्य छोड़कर यत्र -तत्र पलायन कर गए।  समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण भू - मंडल नरान्तक के आधीन हो गया। ऋषि -मुनियों ने यज्ञ और स्वाध्याय छोड़कर पर्वतों की गुफाओं  में आश्रय लिया। 

        तदनन्तर नागलोक पर विजय प्राप्त करने के लिए नरान्तक ने असुरों  की युद्ध कुशल वीरवाहिनी और कूटनीति में दक्ष एवं परम धूर्त कपट शिरोमणि असुरों  को भेजा।  असुरों ने गरुण का वेश धारण किया और नाग लोक में उपद्रव आरम्भ कर दिया। असंख्य वीर नाग काल कवलित हुए।  नागलोक त्रस्त हो गया। नागपत्नियाँ क्रंदन करने लगी।  इससे विवस हो नाग लोक ने नरान्तक की आधीनता स्वीकार कर ली।  सहस्त्र फणधारी शेषनाग ने नरान्तक को वार्षिक कर देना स्वीकार किया 

        नरान्तक ने एक वीर दैत्य को नाग लोक का अधिपति बनाया। उसने सम्पूर्ण पातल में घोषणा की -असुर शासन   में  सभी नाग शांतिपूर्वक रहें। किसी भी नाग के द्वारा नियमोलंघन होने पर सम्पूर्ण नाग जाति  दण्डित होगी। 

        भूतल  और रसातल में नरान्तक के शासन का संवाद प्राप्त कर देवान्तक अत्यंत प्रसन्न हुआ  और अपने भाई के  स्वर्गाधिप होने के समाचार से नरान्तक की प्रसन्नता  की सीमा न रही।  असुर भाइयों द्वारा त्रलोक्य का निष्कंटक राज्य किया जाने लगा।  देवान्तक स्वर्ग की दुर्लभ बहुमूल्य वस्तुओं का उपहार पृथवी पर अपने भाई के पास भेजता और नरान्तक भूतल और रसातल की सर्वोत्तम  सामग्रियां स्वर्गाधिप बंधु के पास भेजता रहता।  इसप्रकार देवान्तक और नरान्तक का सर्वत्र एक छत्र साम्राज्य स्थापित हो गया।  देवता ,तपस्वी ऋषि -मुनि एवं सदाचारी ब्राह्मण  यत्र -तत्र अत्यंत कष्टपूर्वक जीवन निर्वाह कर रहे थे. ........ 

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