गूगल से साभार
महोत्कट चार वर्ष के हुए। अपनी बुद्धि ,कौशल एवं अलौकिक कर्मों से वे आश्रम वासियों के प्राण प्रिय और सम्पूर्ण आशाओं के केन्द्र बन गए।
आश्रम के निकट ही तमाल ,देवदारु ,जम्बू ,आम और कटहल के सघन वृक्ष थे। उनके मध्य में एक सुन्दर सरोवर था। सरोवर का जल अत्यंत मीठा ,निर्मल और मधुर था। किन्तु उसमें बहुत से मत्स्य और मगर रहते थे। उनसे आश्रम वासियों को बड़ा कष्ट होता था। मगर के भय से आश्रमवासी उसमे स्वच्छंद स्नान नहीं कर सकते थे। उसके तट पर संध्या वंदन करने एवं जल भरने में भी डरते थे।
एक दिन की बात है ,सोमवती अमावस्या थी और व्यतिपात का योग इस उत्तम पर्व पर अदिति देवी सरोवर में स्नान करने के लिए आयी। माता के साथ शिशु महोत्कट भी वहाँ आया था। माँ ने उसे जलशय के तट पर बिठा दिया और वे स्वयं आकंठ जल में स्नान करने के लिए उतर गयी। तब बालक ने भी उछल कर माता के पास जाने की चेष्टा की। परन्तु वह पानी में गिर गया और उसी में खेलने लगा। इतने में ही एक मगर ने आकर उसे पकड़ लिया। जल के भीतर खड़ी हुयी माता ने जब बालक की यह दशादेखी तब वे घबरा गयी और तुरंत उसकी रक्षा के लिए लोगो को पुकारने लगी। दौड़ो -दौड़ो बचाओ। अदिति स्वयं भी बच्चे को पकड़ने के लिए शीघ्रता पूर्वक उसके पास गयीं। पर वे उसे पकड़ न सकी। मगर उनकी की पकड़ से बाहर रहते हुए भी महोत्कट को पानी के भीतर खींचे लिए जा रहा था। माता भी दूर तक उसके साथ खींचती चली गयी।
महोत्कट और उसकी माता को सरोवर में आकंठ मग्न देख मुनि के शिष्य उछल - उछल कर जल में कूद पड़े। किन्तु वे भी उस बलवान मगर की पकड़ से बालक को छुड़ा न सके। तब बालक ने असीम बल का परिचय दिया। उसने खेल -खेल में ही उस मगर को जल से बाहर जमीन पर फैक दिया। उसका शरीर चूर - चूर हो गया। वह निश्चेष्ट हो गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
बालक की माता और आश्रम के सभी लोग आश्चर्य चकित थे। महोत्कट के सम्मुख सुन्दर वस्त्र पहने एक तेजस्वी पुरुष हाथ जोड़े कह रहा था - प्रभो ! पहले मैं चित्रगंधर्व नामक गन्धर्वो का राजा था। मेरे विवाह के अवसर पर सभी गंधर्व उपस्थित हुए। मैंने सब का स्वागत सत्कार किया। किन्तु महामुनि भृगु की मैंने पूजा नहीं की।
तुम सरोवर के नक्र हो जाओगे। भृगु मुनि के श्राप की कल्पना कर मैं भय से कांपने लगा। मेरी करुण प्रार्थना सुनकर दयालु मुनि ने पुनः कहा - कश्यप नंदन ! गजानन के स्पर्श से उस जलचर यौनि से मुक्त हो जाओगे। इतना कहकर वह गंधर्व देव -देव गजानन की स्तुति करने लगा। फिर उसने बालरूपी गजानन के चरणों में प्रणाम कर बार -बार उनकी प्रदक्षिणा की। उसके पश्चात वह गन्धर्व अपने लोक को चला गया। महोत्कट की जननी के आश्चर्य की सीमा न थी। उन्होंने बड़े प्यार से अपने पुत्र को गोद में लेकर उसके मुख में अपना स्तन लगा दिया। बालक विनायक प्रेम पूर्वक दुग्धपान करने लगे।
एक बार संगीत विशारद हाहा ,हूहू और तुम्बरू नामक गंधर्व पीताम्बर धारण किये हुए गोपीचन्दन का तिलक लगाए वीणा पर मधुर स्वर में हरि गुण गाते कैलाश की यात्रा करते हुए महर्षि कश्यप के आश्रम पर पहुंचे। मुनि ने उनका स्वागत किया और उनसे भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की।
तीनों अतिथियों ने स्नान कर देवी पार्वती, शिव ,विष्णु और विनायक तथा सूर्य की पूजा की और फिर अपने ईष्ट का ध्यान करने लगे। उसी समय महोत्कट बाहर से खेल कर आये। उनकी दृष्टि पञ्च देवों के विग्रह पर पड़ी तो उसने धीरे से उन्हें उठाकर फैंक दिया। नेत्र खुलने पर देवताओं की प्रतिमा न देख गंधर्व व्याकुल हो गए। उन्होंने यह बात महर्षि कश्यप से कही।
महर्षि कश्यप चकित हुए चिंतित थे। सम्मानित अतिथियों की देव प्रतिमाएँ ढूढ़ने के लिए वे चारों और दौड़ -धूप कर रहे थे। उन्होंने चंचल पुत्र महोत्कट पर संदेह किया। उन्होंने हाथ में छड़ी लेकर क्रोध में कांपते हुए विनायक से पूछा। अतिथियों की प्रतिमाएँ कहाँ गयी ?
मैं तो बाहर बालकों के साथ खेल रहा था। भष्म में लिप्त महोत्कट ने भय की मुद्रा में उत्तर दिया।
तू शीघ्र ही प्रतिमाएं ला दे। नहीं तो तुझे बुरी तरह पीटूंगा। कुपित कश्यप ने उन्हें
कहा।
मैंने मूर्ति नहीं ली है। महोत्कट रोने लगा। रोते - रोते वह पृथ्वी पर लेट गया। माता अदिति भी वहाँ पहुंच गयी। यदि मैंने मूर्ति खा ली है तो मेरे मुँह में देख लो। महोत्कट ने अपना मुखारबिंद खोल दिया। अत्यंत आश्चर्य माता अदिति मूर्छित हो गयी। महर्षि कश्यप और हरि भक्त परायण तीनों गंधर्वों ने आश्चर्यचकित होकर देखा - बालक महोत्कट के छोटे से मुख में कैलाश ,शिव ,वैकुण्ड सहित विष्णु ,सत्यलोक ,अमरावती सहित सहस्त्रों पर्वत ,वनों ,समुद्रों ,सरिताओं ,यक्षों ,पन्नगों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी ,चौदह भुवन ,समस्त लोकपाल ,पाताल ,दसों दिशाएँ तथा अद्भुत सृष्टि दिख रही थी।
सचेत होने पर माता अदिति ने तुरंत बालक महोत्कट को अंक में उठा लिया और उसे दुग्धपान करने लगी। महर्षि कश्यप ने मन ही मन कहा - अरे ! यह तो अखिलेश्वर प्रभु ने ही मेरे पुत्र रूप में जन्म लिया है। मैंने इन्हें दंड देने का विचार कर ही बड़ी भूल की।
मैं तो इस बालक को दंड दे ही नहीं सकता ,अब आप लोग जैसा उचित समझें वैसा करें। कश्यप ने गन्धर्वो से स्पष्ट कह दिया।
देव प्रतिमाओं के मिले बिना हम लोग आपका अन्न ,फल ,कंदमूल आदि कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे। अत्यंत दुखी होकर गंधर्वों ने महर्षि कश्यप से इतना कहा ही था की उन्होंने महोत्कट के स्थान पर देवी पार्वती ,शिव ,विष्णु ,विनायक और सूर्य का प्रत्यक्ष दर्शन किया। वही बालक क्षण - क्षण पञ्च देव के रूप में दिख रहा था।
फिर तो हाहा , हूहू और तुम्बरू ने महोत्कट के चरणों में प्रणाम किया और वे महर्षि कश्यप के द्वारा दिए गए अन्न -फल आदि को प्रेम पूर्वक ग्रहण करने लगे। उस समय उन्होंने महोत्कट में अपने रूपों के दर्शन किये। क्षण में अत्यंत भयानक दीखता तो अगले क्षण विश्व रूप में उसका दर्शन होता। इस प्रकार प्रभु के अनेक स्वरूपों का दर्शन कर गंधर्वों ने अपना जीवन ,जन्म एवं कश्यप आश्रम में आगमन सफल समझा।
गंधर्वों को महोत्कट विनायक के तत्व का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने परमप्रभु विनायक के श्रद्धा भक्ति पूर्वक हृदय से स्तुति कीऔर बार - बार उनके चरणों में प्रणाम कर उनका स्मरण करते हुए कैलाश के लिए प्रस्थान किया।
नोट - अगले कथानक से आदिशक्ति माँ दुर्गारूप में नवरात्रों के आगमन की तैयारी ..........
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