एक दन्त, चतुर्भुज ,चारों हाथों में पाश , अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किये हुए तथा मूसक चिन्ह की ध्वजा लिए हुए रक्तवर्ण ,लम्बे उदर वाले सूप जैसे बड़े- बड़े कानों वाले ,रक्तवस्त्र धारी ,शरीर पर लाल चन्दन का लेप किये हुए ,लालपुष्पों से भली - भांति पूजित भक्त के ऊपर अनुकम्पा करने वाले देवता जगत के कारण अच्युत सृष्टि के आदि में अभिभूर्त प्रकृति और पुरुष से परे मूसक ध्वज श्री गणेश जी का जो नित ध्यान करता है ,वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है।
महामुनि कश्यप रत्रष्टा के पुत्र थे। वे अत्यधिक बुद्धिमान पुण्यात्मा ,धर्मशील ,तपस्वी , इन्द्रियों के संयमी , करुणामय ,दुःख -शोक को दूर करने वाले ,भूत -भविष्य -वर्तमान के ज्ञाता ,वेदांत शास्त्रों में निपुण ,सर्वशास्त्रों के मर्मज्ञ एवं मनोनिग्रही थे। उनकी परम पतिव्रता पत्नी अदिति समस्त शुभ लक्षणों से संपन्न एवं अदीना थी। अदभुत शीलवती होने के कारण वे महर्षि कश्यप की विशेष कृपा भाजन थी। उन्हीं अनुपम गुण सम्पना अदिति की कोख से इन्द्रादि देव उत्पन्न हुए थे। माता अदिति अपने देवपुत्रों के पराभव यातना से मन ही मन चिंतित -दुखी रहती थी।
एक बार की बात है ,महर्षि कश्यप अग्निहोत्र कर चुके थे। सुगन्धित यज्ञ धूप आकाश में फैला हुआ था। उस समय पुण्यमयी अदिति पति के पास पहुंची। परम तपस्वी पति कश्यप के चरणों में प्रणाम कर उन्होंने निवेदन किया - स्वामिन ! साध्वी स्त्रियों के लिए पति के बिना कोई गति नहीं है। अतेव मैं कुछ निवेदन करना चाहती हूँ। अदि आप आज्ञा प्रदान करे तो प्रार्थना करूँ?
कल्याणी ! तुम्हारे मन में जो कुछ भी हो कहो। महर्षि कश्यप ने स्नेह पूर्ण वाणी में उत्तर दिया।
इन्द्रादि देवताओं को तो मैंने पुत्र रूप में प्राप्त कर लिया ,किन्तु पूर्ण परात्पर सचिदानंद परमात्मा मेरे पुत्र रूप में प्राप्त हों और मैं उनकी सेवा करूँ। यह कामना मेरे मन में बार - बार उदित हो रही है। साध्वी अदिति ने अपने पति महर्षि कश्यप से विनय पूर्वक कहा - वे परम प्रभु किस प्रकार मेरे पुत्र होकर मुझे कृत्यकृत करेंगे। आप कृपापूर्वक बतलाने का कष्ट कीजिये।
प्रिये ! ब्रह्मादि देवताओं और श्रुतियों के अगोचर निर्गुण, निरंकार ,निष्काम ,निर्विकल्प ,माया के आदर मायातीत ,मायाविस्तारक ,करुणामय प्रभु कठोर तप के बिना साकार - विग्रह कैसे धारण करेंगे? अपनी पतिव्रता पत्नी की सर्वोत्तम कामना से अतिशय प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप ने उत्तर दिया।
देव ! यह पवित्रतम अनुष्ठान मैं किस प्रकार करूँ ? पत्नी अदिति ने हर्षित होकर पूछा - किसका ध्यान और किस मन्त्र का जप करूँ ? महर्षि कश्यप ने अपनी प्रिय पत्नी को विनायक का ध्यान ,उनका मन्त्र और न्यास सहित पुरश्चरण की पूरी विधि विस्तार पूर्वक बता दी। और उन्हें इस उपासना के लिए प्रोत्साहित किया।
महाभागा अदिति अत्यंत प्रसन्न हुयी। उन्होंने अपने परम पवित्र पति के चरणों में प्रणाम कर अत्यंत आदर पूर्वक उनकी पूजा की। फिर उनकी आज्ञा पाकर कठोर तप करने के लिए चली गयी।
देवमाता ! अदिति एकांत ,शांत अरण्य में पहुंची। वहां उन्होंने स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण किये। पवित्र आसन पर बैठकर उन्होंने अपने मन और इन्द्रियों का निरोध कर लिया। फिर सविधि न्यास कर देवाधिदेव विनायक का ध्यान करती हुयी ,रीतिपूर्वक उनके मन्त्र का जप करने लगी।
भगवती अदिति देव -देव विनायक के ध्यान और जप में अत्यंत तन्मय हो गयी। वे जप ध्यान परायण देवमाता अदिति सर्वथा निराहार रहती थी। केवल वायु पर उनका शरीर टिका हुआ था। उनकी इस कठिन तपस्या के प्रभाव से वन के समस्त प्राणी अपना स्वभाविक वैर - भाव त्याग कर निर्वैर हो गए।
पता नहीं माता अदिति क्या चाहती हैं? देवता भयभीत होने लगे। इस प्रकार उन्हें कठोर तपश्चरण को ,दुःखपूर्वक कष्ट सहते हुए सौ वर्ष व्यतीत हो गए।
भगवती अदिति की कठोर प्रीति एवं कठोर तप से कोटि - कोटि भुवन भाष्कर की प्रभा से भी अधिक परतेजस्वी कामदेव से भी अधिक सुन्दर देव - देव गजानन ,विनायक उनके सम्मुख प्रकट हो गए। उनकी दस भुजाएं थी। कानों में अनुपम कुण्डल झिलमिला रहे थे। उनकी दोनों पत्नियाँ सिद्धि और बुद्धि उनके साथ थी। उनके मंगल कंठ में मोतियों की माला सुशोभित थी। उन्होंने परशु और कमल धारण किये हुए थे। उनकी कटि में स्वर्णिम कटिसूत्र एवं उनके ललाट में कस्तूरी का तिलक लगा था। उन्होंने नाभि पर सर्प धारण कर रखा था। उन मंगल विनायक प्रभु के मंगल विग्रह पर दिव्याम्बर शोभा दे रहे थे।
परशुधर दसभुज विनायक के इस परम तेजस्वी रूप का दर्शन करते ही महिमामयी तपस्विनी भयभीत होकर काँपने लगी। उनके नेत्र मुद गए और वे मूर्छित होकर धरती पर गिर गयी।
तुम दिवारात्रि जिनका ध्यान एवं जप करती हो मैं वही हूँ। माता अदिति को चेतना एवं धैर्य प्रदान करते हुए परमप्रभु विनायक ने कहा - मैं तुम्हारे अत्यंत घोर तप से संतुष्ट होकर तुम्हें वर देने आया हूँ । तुम इच्छित वर माँगो। मैं तुम्हारी कामना अवश्य पूरी करूँगा।
प्रभो ! आप ही जगत के रत्रष्टा पालक और संहार करता हैं। अपने ईष्ट को सम्मुख देखकर देवमाता अदिति ने उनके चरण कमलों में प्रणाम किया और फिर दोनों हाथ जोड़कर प्रेम गदगद वाणी में कहने लगी - आप सर्वेश्वर , नित्यनिरंजन प्रकाशस्वरूप , निर्गुण ,निरहंकार ,ना - ना रूप धारण करने वाले हैं। सौम्यरूप प्रभो! अदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और मेरी आकांक्षा की पूर्ति करना चाहते हैं तो कृपा पूर्वक मेरे पुत्ररूप में प्रकट होकर मुझे कृतार्थ करें। आपके द्वारा दुष्टों का विनाश एवं साधु - परित्राण हो और सामान्य जन कृत -कृत हो जाएँ।
मैं तुम्हारा पुत्र होऊंगा। कल्पतरु विनायक ने तुरंत कहा। साधुजनों का रक्षण , पृथ्वी के कष्टकरुप दुष्टों का विनाश एवं तुम्हारी इच्छा की पूर्ति करूँगा। इतना कहकर देव - देव विनायक अंतरध्यान हो गए।
देवमाता अदिति अपने आश्रम पर लौटी।उन्होंने अपने पति के चरणों में प्रणाम कर उन्हें सम्पूर्ण वृतांत सुनाया। महर्षि कश्यप आनंदमग्न हो गए।
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