गूगल से साभार चित्र
मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूँ। उनके श्री अंगों की आभा प्रभात काल के सूर्य के सामान हैं और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है और उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रों से युक्त हैं। उनके मुख पर मुस्कान की छटा छायी रहती हैं और हाथों में वरद ,अंकुश, पाश एवं अभय मुद्रा शोभा पाते है।
ऋषि कहते हैं - देवी के द्वारा वहाँ महादैत्यपति शुम्भ के मारे जाने पर इंद्र आदि देवता अग्नि को आगे करके उन कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे। उस समय अभीष्टि की प्राप्ति होने से उनके मुख कमल दमक उठे थे। और उनके प्रकाश से दिशायें भी जगमगा उठी।
देवता बोले शरणगत की पीड़ा दूर करने वाली देवी ! हम पर प्रसन्न हो । सम्पूर्ण जगत की माता प्रसन्न हो! विश्वेश्वरी! विश्व की रक्षा करो। देवी ! तुम ही चराचर जगत की अधीश्वरी हो। तुम इस जगत का एक मात्र आधार हो। क्यों की पृथ्वी रूप में तुम्हारी ही स्थिति है। देवी तुम्हारा पराक्रम अलंघनीय है। तुम्ही जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत को तृप्त करती हो। तुम अनंत बल संपन्न वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्व की कारणभूता परमाया हो। देवी ! तुमने इस समस्त जगत को मोहित कर रखा है। तुम्ही प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हो। देवी ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न - भिन्न स्वरूप हैं। जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं। जगदम्बे एक मात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं परावाणी हो।
जब तुम सर्वस्वरूपा देवी ! स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हो। तब इसी रूप में तुम्हारी स्तुति हो गयी। बुद्धि रूप से सब लोगो के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवी ! तुम्हें नमस्कार है। तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायनी शिवा हो। सब पुरूषर्थों को सिद्ध करने वाली शरणागतवत्सला ,तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है। तुम सृष्टि एवं पालन संहार की शक्ति भूता सनातनी देवी गुणों का आधार तथा सर्वमयी हो। नारायणी! तुम्हें नमस्कार हैं।
शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सब की पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी तुम्हें नमस्कार है। मस्तक पर क्रीट और हाथ में महा वज्र धारण करने वाली सहस्त्र नेत्रों के करण उद्दीप्त दिखाई देने वाली और वृत्रासुर के प्राणों का अपहरण करने वाली इन्द्रशक्ति रूपा नारायणी देवी तुम्हें नमस्कार है। सर्वस्वरूपा , सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तिओं से संपन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी ! सब भयों से हमारी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनि ! यह तीन नेत्रों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है।
देवी ! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है। वह घंटा हम लोगो की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करें। चण्डिके ! तुम्हारे हाथों में सुशोभित खड्ग ,जो असुरों के रक्त और चर्बी से चर्चित है ,हमारा मंगल करें। हम तुम्हें नमस्कार करते हैं। देवी ! जहाँ राक्षस ,जहाँ भयंकर विष वाले सर्प ,जहाँ शत्रु ,जहाँ लुटेरों की सेना और जहाँ दावानल हो ,वहां समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो। विश्वेश्वरी तुम विश्व का पालन करती हो। विश्वरूपा हो। इसलिए सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथ की भी वंदनीया हो। जो लोग भक्ति पूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देने वाले होते हैं। देवी ! प्रसन्न हों। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है। इसीप्रकार सदा हमें शतुओं के भय से बचाओ। सम्पूर्ण जगत का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फल स्वरूप प्राप्त होने वाले महामारी आदि बड़े - बड़े उपद्रवों को शीघ्र दूर करो।
विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवी ! हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हुए हैं। हम पर प्रसन्न हो। त्रिलोक निवासी लोगो की पुज्य्नीय परमेश्वरी सब लोगो को वरदान दो।
देवी बोली - देवताओं ! मैं वर देने को तैयार हूँ। तुम्हारे मन में जिसकी इच्छा हो वह वर माँग लो। संसार के लिए उस उपकारक वर को मैं अवश्य दूंगी।
देवता बोले - सर्वेश्वरी तुम इसीप्रकार तीनों लोकों की बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।
देवी बोली - देवताओं ! वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो अन्य महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नंदगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो विंध्यांचल में जा कर रहूंगी और उन दोनों असुरों का नाश करुँगी। फिर अत्यंत भयंकर रूप से पृथ्वी पर अवतार ले मैं वैप्रचित नाम वाले दानवों का नाश करुँगी। उन भयंकर महा दैत्यों को भक्षण करते समय मेरे दांत अनार के फूल की भांति लाल हो जायेंगे। तब स्वर्ग में देवता और पृथ्वी पर मनुष्य सदा मेरी स्तुति करते हुए ,रक्तदन्तिका कहेंगे।
जब पृथ्वी पर सौ वर्षों के लिए वर्षा रुक जाएगी और पानी का आभाव हो जायेगा। उस समय मुनियों के स्तवन करने पर मैं पृथ्वी पर अयोनिजरूप में प्रकट होंगी और सौ नेत्रों से मुनियों को देखूंगी। तब मनुष्य शताक्षी नाम से मेरा कीर्तन करेंगे। देवताओं ! उस समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों द्वारा समस्त संसार का भरण - पोषण करुँगी। जब तक वर्षा नहीं होगी , तब तक वे शाक ही सबके प्राणों की रक्षा करेंगे।
ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से मेरी ख्याति होगी। उसी अवतार में ,मैं दुर्गम नामक महा दैत्य का वध भी करुँगी। इससे मेरा नाम दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध होगा। फिर मैं जब भीम रूप धारण करके मुनियों की रक्षा के लिए हिमालय पर रहने वाले राक्षसों का भक्षण करुँगी। उस समय सब मुनि भक्ति से नत मस्तक होकर मेरी स्तुति करेंगें। तब मेरा नाम भीमा देवी के रूप में विख्यात होगा। जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भरी उपद्रव मचाएगा तब मैं तीनो लोकों का हित करने के लिए छः पैरों वाले असंख्य भ्र्मरों का रूप धारण करके उस महादैत्य का वध करुँगी। उस समय सब लोग भ्रामरी के नाम से चारों और स्तुति करेगा। इसप्रकार जब - जब संसार में दानवी बाधा उत्पन्न होगी तब - तब अवतार लेकर मैं शत्रुओं का संहार करुँगी।
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