गूगल से साभार चित्र 


        धनतेरस के दूसरे दिन छोटी दीपावली का उत्सव मनाया  जाता हैं। इस दिन विशेष रूप से श्री महालक्ष्मी जी की पूजा की जाती हैं। इस दिन को नरकचौदस नाम से भी जाना जाता है। आज के दिन घर के द्वार पर चार बत्ती का यम के नाम का दीपक जलाया जाता है। आज हम नरकासुर की कथा का कथानक पढ़ेंगे। 

       नरक नाम का दानव प्राग्ज्ञोजिषितपुर का राजा था।  वह भूमि देवी का पुत्र था। उसे भौमासुर के नाम से भी पुकारा जाता था। उसने हाथी का रूप धारण कर प्रजापति त्वस्ता की पुत्री कसेरू का जिसकी आयु चौदह वर्ष थी ,अपहरण कर लिया था। वह उसे मोहवश  हर ले गया था।  उसने उसे ना - ना प्रकार के रत्नो ,आभूषणों ,वस्त्रों  आदि के प्रलोभन द्वारा अपनी रानी बनाने का प्रयत्न किया। 

     उसने गन्धर्व कन्याओं का भी अपहरण किया। परन्तु उन्हें उपभोग में नहीं लिया। देवताओं और मनुष्यों के सात समुदायों तथा अप्सराओं की कन्याओं का भी उसने अपहरण किया। इस प्रकार सोलह हजार एक सौ कन्याओं को उसने घर  में बंदी बनाया। उदार हृदय वाले भौमासुर ने उनके रहने के लिए मणि पर्वत पर सुन्दर पुर का  निर्माण कराया। जो की अल्कापुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिसकी रक्षा मुरु नाम का दैत्य करता था। यह महान असुर नरकसुर  तपस्या कर वर पाने के पश्चयात बहुत  अभिमानी हो गया था।

     उस महादैत्य ने कुण्डलों के लिए देवमाता अदिति तक का त्रिरस्कार कर दिया था। पृथ्वी देवी ने उसे जन्म   दिया था। उस नरकासुर के चार बलशाली  दैत्य द्वारपाल थे। जो हयग्रीव ,निसुन्द ,वीरपंचनद तथा महान असुर मुरु -जो की वरदान प्राप्त कर चुका था। नरकासुर समूचे देवयान मार्ग को घेर कर भयंकर रूप वाले राक्षसों के साथ पुण्यात्माओं को डराया करता था।  

     शंख ,चक्र ,गदा और खड़क धारण करने वाले श्री कृष्ण का निवास स्थान द्वारिका है। जिसको देवताओं द्वारा श्री कृष्ण को उपलब्ध कराया गया है। द्वारिकापुरी इंद्र के निवास स्थान अमरावतीपुरी से भी अधिक सुन्दर है।एक दिन की बात  है सभी यदुवंशी श्री कृष्ण की सभा में विराजमान थे। आकाश मार्ग से एक सुन्दर एवं दिव्य तेजोराशि से घिरी एक आकृति प्रकट हुयी।

      उस तेजपुंज से श्वेत हाथी पर बैठे हुए देवराज इंद्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ प्रकट हुए। उस समय महात्मा देवराज इंद्र का श्री कृष्ण ,श्री बलराम तथा राजा उग्रसेन और अंधकवंश के सभी लोगो ने उठाकर स्वागत किया।  देवराज इंद्र श्री कृष्ण से गले मिलकर उन सभी के साथ सभा में विराजमान हुए। 

       देवराज इंद्र ने अपने अनुज श्री कृष्ण के सुन्दर मुखार बिंदु को देखते हुए कहा - देवकीनंदन !मधुसूदन !शत्रुनाशन !आज मैं आपके पास एक परम आवश्यक कार्य से आया हूँ।  नरकसुर   नाम वाला  एक राक्षस है जो ब्रह्मा जी का वरदान पाकर घमंड से भर गया है। उस दैत्य ने मोहवश देवमाता अदिति के दोनों कुण्डल हर लिए हैं। वह प्रतिदिन देवताओं तथा ऋषियों के विरोध में लगा रहता है। अतः तुम अवसर देखकर उस पापात्मा पुरुष को मार डालो ।  ये गरुण जो इच्छा अनुसार सर्वत्र जा सकते हैं आप को वहां पंहुचा देंगे। भूमि पुत्र नरकासुर समस्त प्राणियों के लिए अवध्य है। अतः तुम उस पापी का शीध्र ही संहार करो। 

      तदन्तर शंख ,चक्र, गदा और  खड़क धरी श्री कृष्ण सत्यभामा के साथ गरुण पर बैठकर इंद्र के साथ ही चल दिए। उन्होंने धनुष की प्रत्यन्चा खींचकर जब उसकी टंकार ध्वनि फैलाई उस समय वज्रपात के समान महाभयंकर शब्द सुनाई दिया। तब दानव मुरु ने वह सब जानकर यह समझ लिया कि साक्षात भगवान् विष्णु ही यहाँ पधारे हैं। 

      मुरु ने क्रोधित होकर हाथ में शक्ति लेकर बड़े वेग से श्री कृष्ण की और दौड़ा। उसने उस शक्ति को श्री कृष्ण के ऊपर छोड़ा। जिसे श्री कृष्ण ने एक वाण से उसके दो टुकड़े कर दिए। फिर श्री कृष्ण ने एक भल्ल द्वारा रण भूमि में उस दानव का सिर धड़ से उड़ा दिया। नरकासुर के महाबली अग्रगामी राक्षसों का संहार कर भगवान् देवकीनंदन श्री कृष्ण ने दानवों की विशाल सेना को और ,महाबलि निसुन्द और हयग्रीव तथा अन्य महाबली दैत्यों का  वध कर दिया। 

    सभी दैत्यों का संहार होता देख नरकासुर की आँखें क्रोध से लाल हो गयी। वह लोहे के आठ पहियों वाले रथ पर सवार  होकर, जिसकी पताका में सोने का दण्डा लगा था उस रथ पर ना - ना प्रकार के अस्त्र - शस्त्र भरे थे। श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिए उपस्थित हुआ। देव समूह को त्रास देने वाला तेजस्वी नरकासुर मधु की भांति मधुसुधन भगवान पुरुषोत्तम के साथ युद्ध करने लगा। उस समय उनका उस भयानक रूपधारी ,विशालकाय राक्षस नरकासुर के साथ घोर युद्ध हुआ। अंत में श्री कृष्ण ने चक्र से उसके टुकड़े - टुकड़े कर दिये। अपने पुत्र को रण भूमि में मृत देखकर भुमिदेवी, अदिति के दोनों कुण्डल लेकर गोविन्द की सेवा में उपस्थित हुयी और बोली - गोविन्द! आप ही ने मुझे यह पुत्र प्रदान किया था और आप ही ने इसे मार गिराया। देव !ये ही वे दोनों कुण्डल हैं ,इन्हें लीजिये और उस नरकासुर की संतान का पालन कीजिये। 

     तदन्तर भगवान भूतभावन ने पृथ्वी से कहा - तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो और उसके पश्चात् नरकासुर के महल से ना - ना प्रकार के रत्न लिए श्री भगवान् ने नरकासुर के कन्यांत पुर में जाकर सोलह हजार एक सौ कन्यायें देखी तथा चा र दांत वाले छः हजार गजश्रेष्ठ और इक्कीस लाख काम्बोज देशीय अश्व देखे। उन कन्याओं ,हाथियों और घोड़ो को श्री कृष्ण चंद्र ने नरकासुर के सेवकों द्वारा तुरंत ही द्वारिकापुरी पंहुचा दिया। 

      तदनन्तर भगवान् गरुण का छत्र और मणि पर्वत देखा उन्हें उठाकर उन्होंने पक्षी राज गरुण पर  रख लिया और सत्यभामा के साथ स्वयं भी उसी पर चढ़ कर अदिति के कुण्डल देने के लिए स्वर्ग को पधारे। 
     

       

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