गूगल से साभार चित्र
तदनन्तर त्रिशिरा का वध करके इंद्र अपने भवन की ओर चल दिए। वह मुनि महान आत्मा व तप का भंडार था। इंद्र के द्वारा मारे जाने के पश्चात् भी ऐसा प्रकाशमान हो रहा था मनो जीवित हो। यह देखकर इंद्र मन ही मन सोचने लगा कि यह मुनि जीवित न हो जाये। उस समय उसके सामने तक्षा नामक एक व्यक्ति खड़ा था। इंद्र ने उससे कहा - तक्षा ! तुम इस तेजस्वी मुनि के मस्तक को धड़ से अलग कर दो। इंद्र की बात सुनकर तक्षा ने कहा - इस मुनि का कन्धा बड़ा विशाल प्रतीत हो रहा है। मेरी कुल्हाड़ी उसे मार न सकेगी। तुमने यह अत्यंत निंदनीय कार्य किया है। जो मारा हुआ है उसे पुनः मारने में केवल पाप का भागी ही होना पड़ता है। मैं इस पाप से डरता हूँ। वह मुनि तो मर ही गया ,फिर इसका सिर काटने से क्या परियोजन।
इंद्र ने कहा - इस पाप को दूर करने के लिए मैं प्रायश्चित कर लूंगा। छल करके भी शत्रु को मारना सर्वथा उचित है। अगर तुम यह कार्य कर दोगे तो मैं समस्त यज्ञों में तुम्हें भाग दूंगा। यज्ञ करते समय मनुष्य तुम्हें बलि चढ़ाया करेंगे। इसके बदले में त्रिशिरा के मस्तक को काट कर तुम मेरा प्रिय कार्य करो।
इंद्र की यह बात सुनकर तक्षा के मन में लोभ आ गया। फिर तो उसने मजबूत टांगी उठायी और त्रिशिरा के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। उन तीनों मस्तकों के जमीन पर गिरते ही तुरंत उनसे हजारों पक्षियों का जन्म हो गया। मुनि के मुख से गौरेया , कबूतर और तीतर आदि पक्षीगण उत्पन्न हो गए। त्रिशिरा के मस्तक से यों पक्षी निकल गए। यह देखकर इंद्र के मन में बढ़ी प्रसन्नता हुयी फिर वे स्वर्ग को सिधार गए । यज्ञ में भाग पाने का अधिकार मिलने से तक्षा का मन अत्यंत प्रसन्न था। पराक्रमी शत्रु मार डाला गया ,यह समझकर इंद्र भी अपने भवन पहुंचे। उन्हें ब्रह्महत्या की कुछ भी चिंता नहीं थी।
इधर तवस्ता को यह ज्ञात होने पर की मेरा परम धार्मिक पुत्र मार डाला गया उसे बहुत ही क्रोध हुआ। मेरा पुत्र अत्यंत धार्मिक मुनि था वह जिसके द्वारा भी मारा गया है उससे बदला अवश्य लूंगा। अतः उसके वध के लिए मैं पुनः पुत्र उत्पन्न करूँगा। देवता मेरा पराक्रम और तपोबल देखें। इसप्रकार तवस्ता ने पुत्र उत्पन्न करने के लिए अथर्ववेद के मन्त्रों का उच्चारण करके अग्नि में हवन करना प्रारम्भ किया। आठ रात्रियों तक हवन होता रहा।
तदनन्तर उस अग्नि से एक पुरुष प्रकट हुआ। जो अग्नि के समान ही प्रकाशमान था। वह पुत्र महान तेजस्वी एवं बलवान था। वह तवस्ता के सामने खड़ा हो गया। तब तवस्ता ने उस पुत्र की ओर देखते हुए कहा - इन्द्रशत्रो !तुम मेरी तपस्या के प्रभाव से अत्यंत शक्तिशाली बन जाओ। उनके कहने पर अग्नि के समान तेजस्वी पुत्र अपना शरीर बढ़ने लगा। वह ऐसा बढ़ा मनो आकाश छू लेगा। अत्यंत घबराये हुए पिता से उसने कहा - पिताजी आज्ञा दीजिये मुझे क्या करना है ? प्रभो ! मेरा नाम बताने के साथ ही कार्य का भी निर्देश दें। आपकी चिंता का क्या कारण है। मैं अभी आपकी चिंता दूर किये देता हूँ। उस पुत्र के पैदा होने का क्या लाभ जब कि पिता को दुःख झेलना पड़े। मैं अभी समुद्र पी डालता हूँ। मैं समस्त पर्वतों को छिन्न - भिन्न कर दूंगा। आज ही देवताओं सहित इंद्र को मार डालता हूँ।
पुत्र के ऐसे अनुकूल वचन सुनकर तवस्ता के आनंद की सीमा न रही। उसने पर्वताकार शरीर वाले पुत्र से कहा - तुम इस समय मुझे संकट से बचने में समर्थ हो। इसलिए वृत्रासुर नाम से जगत में तुम्हारी प्रसिद्धि होगी। तुम्हारा त्रिशिरा नाम से एक तपस्वी भाई था। उसके तीन मस्तक थे। तुम्हारा भाई वेद और वेदांग का पूर्ण ज्ञाता था। वह तपस्या में लीन था। तब इंद्र ने वज्र से मारकर उसके मस्तक काट डाले। मेरा वह पुत्र निरपराध था। अतः तुम पापी इंद्र को परास्त करो। क्यूंकि ब्रह्मघाती ,नीच ,निर्लज और दुर्बुद्धि है। पुत्र से ऐसा कहकर तवस्ता भांति - भांति के आयुधों के निर्माण में लग गया। उन आयुधों से उसने वृत्रासुर को सुसज्जित कर दिया। उन्होंने मेघ के समान प्रतिभाशाली तथा भार सहने में समर्थ शीघ्रगामी अत्यंत सुन्दर रथ वृत्रासुर को प्रदान किया और उसे युद्ध करने की अज्ञा दी।
व्यास जी कहते हैं - राजन ! तदनन्तर महाबली वृत्रासुर ने पारागामी विद्वानों द्वारा पूजन कराकर रथ पर बैठकर इंद्र को मरने के लिए चल दिया। देवताओं ने जिन दैत्यों को युद्ध में पराजित किया हुआ था वे दानव भी वृत्रासुर के साथ चल दिए। यह देखकर इंद्र के गुप्तचरों ने इसकी सूचना देवराज को दी।
दूतों ने इंद्र से कहा - स्वामिन !वृत्रासुर नाम का दानव आपका घोर शत्रु है। आपने त्वस्ता के पुत्र त्रिशिरा की हत्या की थी उसने आपका संहार करने के लिए मन्त्र प्रयोग से इस शक्तिशाली दैत्य को उत्पन्न किया है। उसके साथ बहुत से अन्य राक्षस भी हैं। आपका यह शत्रु भयंकर विकराल है। उसकी आकृति मंदरांचल के सुमेरु पर्वत के समान है। आप अपनी रक्षा का प्रयत्न करें। उसी समय अत्यंत डरे हुए देवता भी वहां आ पहुंचे और देवराज इंद्र से बोले - माधवन ! इस समय स्वर्ग में अनेक प्रकार के अपसगुन हो रहे हैं। आकाश , पाताल और मृत्युलोक में सर्वत्र उत्पात ही उत्पात हो रहे हैं। प्रायः अनिष्ट की सूचना देने वाले सभी अंगों में फड़कन आरंभ हो गयी
है .............
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