गूगल से साभार चित्र 
           


       व्यास जी कहते हैं - राजन ! देवताओं की बात सुनकर इंद्र चिंतित हो गए और उन्होंने गुरु बृहस्पति जी को बुलाकर उनसे मंत्रणा शुरू की। 

       इंद्र ने कहा-  आप  सर्वज्ञ हैं। आप बुद्धिमान शास्त्र के तत्व को जानने वाले तथा देवताओं के गुरु हैं।  विधियों के ज्ञाता ब्राह्मण हैं।  आप शत्रुक्षय करने वाली कोई शांति करने की कृपा करें। जिससे मुझे दुःख न देखना पड़े। 

     बृहस्पति जी बोले - देवराज ! मैं क्या करूँ ? इस समय तुम्हारे द्वारा घोर निन्दित कार्य हो गया।  निरपराधी  मुनि को मारकर क्यों इस बुरे फल के भागी बन गए। दूसरों को पीड़ा देने वाला स्वयं सुखी रहे यह असम्भव है। तुमने मोह ओर लोभ में पड़कर ब्रह्म हत्या कर डाली। सम्पूर्ण देवता भी मिलकर इस वृत्रासुर को नहीं मार सकते। वह दिव्य आयुधों के साथ आ रहा है।  देवेंद्र ! वह प्रतापी दैत्य जगत का संहार करने के लिए आ रहा है।  वह किसी प्रकार मारा नहीं जा सकेगा। 

      राजन ! इस प्रकार बृहस्पति जी के कहने पर यक्ष , गन्धर्व ,किन्नर ,मुनि, देवता - सब के सब घर छोड़कर भाग चले। यह देखकर इंद्र चिंतित हो गए और उन्होंने सभी देवताओं और अश्विनी कुमारों ,आदित्यों आदि को बुलाकर युद्ध के लिए तैयार होने को कहा। 

   इस प्रकार सेवकों को आदेश देकर देवराज इंद्र ऐरावत हाथी  पर सवार होकर अपने भवन से चल दिया।  ऐसे ही समस्त देवता भी अपने - अपने वाहनों पर सवार होकर युद्ध के लिए चल पड़े।  तब तक वृत्रासुर भी दानवों के साथ मानस पर्वत की उत्तरी सीमा पर पहुंच गया। 

     इंद्र भी देवताओं के साथ उस स्थान पर पहुंचे और युद्ध आरम्भ हो गया।  इंद्र और वृत्रासुर में भयंकर युद्ध छिड़ गया ।  मानवी वर्षों से सौ वर्ष तक युद्ध होता रहा।  मनुष्यो एवं ऋषियों आदि सभी के मन में आतंक छा  गया। पहले वरुण का उत्साह भंग हुआ। फिर वायुगण विचलित हुए। उसके पश्च्यात यम ,अग्नि ,इंद्र सब के सब युद्ध स्थल से भागने लगे। यह  देखकर वृत्रासुर भी अपने पिता तवस्ता के पास लौट आया। 

      उस समय त्वस्ता  बहुत प्रसन्न थे। उन्हें प्रणाम कर वृत्रासुर ने कहा - पिताजी ! मैंने  आपका कार्य पूर्ण कर दिया है।  इंद्र आदि समस्त देवता जो युद्ध भूमि में उपस्थित थे  परास्त हो गए।  वे इस प्रकार भाग गए जिस प्रकार सिंह के सामने हाथियों और मृगों में भगदड़ मच जाती है।  इंद्र पैदल ही भाग गया।  उसके हाथी ऐरावत को मैं पकड़ लाया हूँ।  अब आप हाथियों में प्रशंसनीय इस ऐरावत को स्वीकार कीजिये। डरे हुए प्राणियों को मारना सर्वथा अनुचित है। यह सोचकर मैंने उनके प्राण छोड़  दिए। पिताजी अब आज्ञा दीजिये मैं आपका कौन सा मनोरथ पूर्ण करू।  सब देवताओं में आतंक छा गया है। इंद्र भी निर्भय नहीं  रह सका। उसने अपने ऐरावत हाथी को छोड़कर स्वर्ग की राह पकड़ी।  

     व्यास जी कहते हैं - राजन ! वृत्रासुर की यह बात सुनकर ,त्वस्ता बहुत ही आनंदित हुए। उन्होंने कहा - पुत्र ! आज मैं अपने को धन्य समझता हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया। आज मेरा मानसिक शोक दूर हो गया।  अब मैं तुम्हारे हित की बात कहता हूँ सुनो और उस पर अमल करो। पुत्र बड़ी सावधानी के साथ तपस्या करना परम आवश्यक है। तुम्हारा शत्रु इंद्र महान कपटी है। उसे तरह - तरह की भेद विद्यायें ज्ञात हैं। उत्तम राज्य पाने  लिए तपस्या परम  साधन है। तप के  प्रभाव से प्राणी में बुद्धि  और  बल आते हैं। इसी के आचरण से प्राणी संग्राम में विजय पाता है। अतेव तुम ब्रह्मा जी की आराधना  करके श्रेष्ठ वर पाने की  चेष्टा करो।  वरदान पा जाने पर दुराचारी एवं ब्रह्मघाती इंद्र की  सत्ता नष्ट हो  जाएगी।

     शंकर बड़े दानी हैं। सावधानी पूर्वक स्थिरता के साथ उनकी भी उपासना करो। तुम्हें वे अभीष्ट वर दे सकते हैं। जगत की रचना करने वाले ब्रह्मा जी में असीम सामर्थ्य है। उन्हें प्रसन्न करके तुम अमृत्व की प्राप्ति करो और फिर पापी इंद्र को परास्त करो। 

      व्यास जी कहते हैं -राजन ! वृत्रासुर ने अपने पिता की बात सुनी तब वह पिता की आज्ञा लेकर तपस्या के लिए चल दिया। वह गंधमादन पर्वत पर स्नान आदि कर कुशा का आसन बिछाकर शांतचित्त  होकर तपस्या करने लगा। उसने अन्न और जल का त्याग कर दिया। योगाभ्यास में स्थिर होकर एक निष्ठ आसन पर बैठकर निरन्तर ब्रह्माजी का ध्यान करने  लगा। उसे तपस्या करता  देख इंद्र अत्यंत चिंतित हो गए। उन्होंने फिर उसके तप में विघ्न उत्पन्न करने के लिए गंधर्वों ,यक्षों ,किन्नर ,सर्प ,अप्सरायें आदि को भेजा।  सभी ने अपनी  माया से वृत्रासुर की तपस्या भंग करने के लिए सभी उपायों को प्रयोग में लिया। किन्तु वृत्रासुर अपने लक्ष्य से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। 

      तपस्या के सौ वर्ष पूर्ण होने पर लोकपितामह ब्रह्माजी हंस पर बैठे हुए वहाँ पधारे। ब्रह्मा जी बोले - त्वस्ता नंदन  ! वर मांगों।  मैं तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करने के लिए तैयार हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। अपना अभीष्ट वर माँग लो।

     व्यास जी कहते हैं - वृत्रासुर ने अमृत के समान मधुर वचन सुनकर तपस्या का साधन बंद कर दिया।  वह उठकर खड़ा हो गया। हर्ष के कारण उसके नेत्र आँसू  से  भर गए थे। वह दोनों हाथ जोड़कर नम्रता पूर्वक मस्तक झुका कर ब्रह्मा जी के चरणों में प्रणाम करके अत्यंत गदगद वाणी में कहने लगा - प्रभो ! आज आपका अत्यंत दुर्लभ दर्शन पाकर मुझे सम्पूर्ण देवताओं का पद प्राप्त हो गया। किन्तु नाथ ! एक बड़ी कठिन अभिलाषा है। मैं चाहता हूँ कि लोहे अथवा काठ से बने हुए ,सूखे एवं भीगे तथा इसके सिवा अन्य भी किसी प्रकार के अस्त्र - शस्त्र से मेरी मृत्यु न हो सके।  मेरा पराक्रम सदा बढ़ता रहे। जिससे परम बलशाली देवता युद्ध में मुझे कभी जीत न सकें।  

    व्यास जी  कहते हैं -राजन ! वृत्रासुर के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ब्रह्मा जी बोले - वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो। जाओ तुम्हारी अभिलाषा सदा सफल रहेगी। सूखे -गीले अस्त्र - शस्त्र तथा किसी कठोर पदार्थ आदि से तुम्हारा मरण नहीं  हो सकेगा। मेरी यह बात अमिट है।  वृत्रासुर को इसप्रकार वरदान देकर ब्रह्माजी अपने लोक में पधार गए। वर पा जाने पर वृत्रासुर हर्षपूर्वक अपने घर लौट गया। 

   

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