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एक समय राजा जन्मेजय ने ऋषि व्यास जी से पूछा कि मुनि इंद्र ने वृत्रासुर को मारा यह एक प्राचीन कथा है। फिर उस दैत्य को देवी ने कैसे मारा ? और किस कारण से इस कार्य में देवी प्रकट हुयी। ऋषिवर एक ही वृत्रासुर के दो विनाशक कैसे हो सकते हैं ? कृपया इस प्रसंग को विस्तार से सुनाएँ।
व्यास जी कहते हैं राजन !एक बार वृत्रासुर और इंद्र का युद्ध हुआ था। वृत्रासुर को शत्रु मानकर इंद्र ने मार डाला। इससे उन्हें महान दुःख उठाने पड़े। इंद्र ने उन्हें कपट भेष धारण कर मारा था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। क्यूंकि महामाया के प्रभाव से मुनियों की भी बुद्धि भ्र्ष्ट हो जाती है। सत्यमूर्ति भगवान विष्णु अपनी माया से दैत्यों को निरंतर मरते रहते हैं। फिर इनसे अन्य कौन है जो जगत को मोहित करने वाली भगवती महामाया को मन से भी जीत सके। क्यूंकि अपार गुण प्रकट करने वाली महामाया सब को मोहित किये हुए है। कभी कोई भी मनुष्य इस माया को मिटा नहीं सकता। इसी माया के प्रभाव से देवता भी अपने कार्य को पूर्ण करने हेतु छल पूर्वक वृत्रासुर को मरने के लिए तैयार हो गए। उसी प्रसंग को सुनाता हूँ सुनो -
त्वस्ता प्रजापति के पद पर नियुक्त थे। इनको देवताओं में प्रधान मान जाता था। उन्ही के द्वारा देवताओं की सारी व्यवस्था का संचालन होता था। वे बहुत ही कार्य कुशल एवं ब्राह्मण प्रेमी थे। एक बार उनका इंद्र के साथ बैर हो गया। तब उन्होंने एक पुत्र उत्पन्न किया। जिसके तीन मस्तक थे। उस पुत्र की विश्वरूप नाम से प्रसिद्धि हुयी। वह बहुत सुन्दर था। तीन मनोहर मुखों के होने के कारण उसकी शोभा और बढ़ गयी थी। उसके तीन मुखों से अलग - अलग तीन कार्य संपन्न होते थे। एक मुख से वेद पाठ करता था ,दूसरे से मधुपान और तीसरे मुख से एक साथ सभी दिशाओं का नरिक्षण करता था। उसने कठिन तपस्या आरम्भ कर दी थी। वह संयम पूर्वक धार्मिक निष्ठा के साथ तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहा था। गर्मी के दिनों में पंच अग्नि तप, वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे रहता शारद एवं हेमंत ऋतु में जल में रहकर तपस्या करता था। सदा निराहार रहकर उसने अपनी इन्द्रिओं को वश में कर लिया था। इस तरह विश्वरूप घोर तपस्या करने लगा।
विश्वरूप को तपस्या करते देख इंद्र दुखी होकर सोचने लगे की कहीं ये मेरा पद न छीन ले। उस समय विश्वरूप में असीम तेज आ गया था। जिसे देखकर इंद्र अत्यंत चिंतित रहने लगा। उसने सोचा इसकी तपस्या नष्ट करने के लिए मुझे कोई उपाय करना चाहिए। कामदेव तप का शत्रु है। इसके प्रभाव से निश्चय ही त्रिशिरा की तपस्या नष्ट हो जाएगी। इंद्र ने त्रिशिरा की तपस्या भंग करने के लिए अप्सराओं को आज्ञा दी। उर्वसी ,मेनका ,रम्भा , त्रिलोत्तमा आदि अप्सराओं से कहा - मेरा महान शत्रु तपस्या कर रहा है। भली - भांति सुन्दर वेश - भूषा बनाकर उसे लुभाने में सभी तरह के उपायों से काम लो मेरी चिंता दूर करना अब तुम्हारे हाथों में है।
देवराज इंद्र की आज्ञा पाकर अप्सराओं ने उन्हें प्रणाम किया और बोली - आप निर्भय हों। त्रिशिरा को लुभाने के लिए हम पूर्ण प्रयत्न करेंगी। उस मुनि को लुभाने में नाचने गाने ,विहरने की सारी विधियाँ काम में लेंगी। विभो ! हम अपने प्रयत्न से उसे मोहित कर वश में कर लेंगी। वह हमारे चंगुल में अवश्य फस जायेगा।
इस प्रकार इंद्र से कहकर अप्सराएँ त्रिशिरा के पास पहुंची। उन्होंने मुनि को लुभाने के लिए सभी तरह के उपायों को प्रयोग में लिया। परन्तु त्रिशिरा की उन पर तनिक भी दृष्टि नहीं पड़ी। उसने अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय पा ली थी। वह गूंगे ,बहरे की भांति निश्चल बैठा रहा। अप्सराओं ने अपने नाचने ,गाने और अनेक प्रपंचों से त्रिशिरा को लुभाने की कोशिश की , परन्तु वह मुनि अपने ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुआ। उनके मन में निराशा छा गयी। वे सभी स्त्रियाँ वापस इंद्र के पास गयी और हाथ जोड़कर कहने लगी - महाराज ! देवेश्वर ! हमने सभी प्रयत्न किये। किन्तु वह तपस्वी अपने धैर्य से जरा भी विचलित न हो सका। यह तपस्वी जितेन्द्रिय है। उसके सामने हमारा बल कुछ भी कार्य न कर सका। वह मुनि कोई महान पुरुष है। वह तप के प्रभाव से अग्नि सामान तेजस्वी हो गया है।
तदनन्तर खोटी बुद्धि वाला इंद्र चिंता में डूब गया। त्रिशिरा किस उपाय से मारा जाये यही उसकी चिंता का कारण था। उस समय देवराज इंद्र लोभविष्ट होने के कारण घ्रणित विचार वाले हो गए थे। वे स्वयं त्रिशिरा मुनि के पास गए। वहाँ पहुंचकर उन्होंने अमित पराक्रमी मुनि को ध्यानमग्न देखा। उन्हें देखकर इंद्र के मन में विचार आया की मेरे आसन पर अधिकार ज़माने की इच्छा रखने वाले इस शत्रु की उपेक्षा कैसे करू? यों विचार कर देवगणों के अध्यक्ष ने अपना सर्वोत्तम वज्रास्त्र त्रिशिरा मुनि पर चला दिया। उस समय मुनि समाधी में थे। वे घायल होकर भूमि पर गिर पड़े और उनके प्राण निकल गए। उन्हें देखकर जान पड़ता था कि मनो कुलिश से कटा हुआ पर्वत शिखर गिर पड़ा हो। उसे मारकर देवराज को बड़ा हर्ष हुआ। वहां उपस्थित मुनियों ने कहा - इंद्र बड़ा पापी है। इसने इस तपस्वी को मारकर बहुत बड़ा पाप किया है। हत्या से प्रकट हुआ पापफल इस पापी को अवश्य भोगना पड़ेगा ..........
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