गूगल से साभार चित्र
श्री विष्णु भगवान् ने माता महालक्ष्मी को घोड़ी का रूप धारण करने का श्राप क्यों दिया ? आज हम इस कथानक के विषय में बताएँगे।
एक बार लीला में श्री विष्णु ने लक्ष्मी जी को घोड़ी बनने का श्राप दे दिया था। भगवान् की हर एक लीला में कुछ उद्देश्य अवश्य छिपा होता है। इसी रहस्य के कारण लक्ष्मी जी दुखी तो बहुत हुयी परन्तु वे भगवान् को प्रणाम कर और उनकी आज्ञा लेकर मृत्यु लोक में चली गयी। सूर्य की पत्नी ने जिस स्थान पर अत्यन कठोर तप किया था ,उसी स्थान पर लक्ष्मी जी घोड़ी का रूप धारण कर रहने लगी। वहाँ यमुना और तमसा नदी के संगम पर सुपर्णाक्ष नामक स्थान था। वहाँ सुन्दर वन सुशोभित थे। वहीं रहकर लक्ष्मी जी ने जो समस्त संसार के मनोरथ पूर्ण करती हैं वहां पर जो मस्तक पर चन्द्रमा धारण करते हैं उन त्रिशूलधारी भगवन शंकर का एकाग्रचित्त से ध्यान करने लगी। उस पावन तीर्थ में रहकर सुन्दर धोड़ी का रूप धरण करके उन्होंने बड़ी कठिन तपस्या की। भगवान शंकर का ध्यान करते हुए लक्ष्मी जी के मन में पूर्ण वैराग्य उत्पन्न हो गया था।
इसके पश्चयात तीन नेत्रधारी भगवान् शंकर प्रसन्न होकर बैल पर चढ़े हुए पार्वती जी के साथ पधारे और उन्हें साक्षात् दर्शन दिए। भगवान् शंकर ने अपने गणों के साथ वहां पहुँचकर माता लक्ष्मी जी से कहा -
कल्याणी जगदम्बे ! तुम क्यों तपस्या कर रही हो ? तुम्हारे पति देव सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं। एवं सम्पूर्ण लोक के अध्यक्ष हैं। देवी ! श्री हरि तो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। ऐसे मुक्ति प्रदान करने वाले श्री विष्णु को छोड़कर तुम मेरी आराधना क्यों कर रही हो ? पति की सेवा करना स्त्रियो के लिए सनातन धर्म मान गया है। सिंधुजे ! ऐसे देवेश्वर श्री हरि को छोड़ कर तुम मेरी उपासना क्यों कर रही हो ?
लक्ष्मी जी ने कहा - आशुतोष ! महेशान शिव कहलाने वाले दया सिंधु ! मेरे पतिदेव ने मुझे श्राप दे दिया है। आप इस श्राप से मेरा उद्धार कीजिये। शम्भू !उन्होंने श्राप से छुटकारा पाने का उपाय भी बता दिया है। उन्होंने कहा है - कमलालये ! जब तुमसे पुत्र उत्पन्न हो जायेगा तब तुम वैकुण्ठ में स्थान पा जाओगी।
सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करने वाले आप परम प्रभो को मैंने अपना आराध्य बना लिया है। देव - देव मुझ धरम पत्नी को छोड़कर वे वैकुण्ठ में विराज रहे हैं। फिर मैं उनके बिना पुत्र कैसे उत्पन्न कर सकती हूँ ? देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे वर दें। गिरिजा को प्रेम प्रदान करने वाले प्रभो जो आप हो वही वे हैं ,उसमे तनिक भी भेद नहीं है। महादेव ! आप दोनों महानुभाव एक ही हैं।
भगवान शिव बोले -देवी ! मैं और हरि एक ही हैं। इस रहस्य का तुमको कैसे पता चला ? मुझ से बताने की कृपा करो। देवता ,मुनि ,ज्ञानी और वेद के सत्यपरागामी पुरुष भी इस एकत्व को नहीं समझ पाते हैं। देवी ! कलयुग में इस बात की बड़ी विशेषता रहेगी। समय के भेद से यह भेद - भाव बढ़ता चला जा रहा है की मैं और हरि अलग - अलग हैं। परन्तु भद्रे ! मुझमें और श्री हरि में सम्यक प्रकार से एकता है। इस भाव को तुम कैसे जान गयी ?
लक्ष्मी जी ने कहा - देवेश ! एक समय की बात है। भगवान श्री हरि एकांत में ध्यान कर रहे थे। उन्हें इस प्रकार तप करते देख मुझे महान आश्चर्य हुआ। उनकी समाधि टूटने पर उनके मुख पर प्रसन्नता झलक रही थी। तब मैंने विनय पूर्वक उनसे पूछा - प्रभो ! आप देवताओं के अध्यक्ष तथा जगत के स्वामी हैं। सर्वेश ! आप किसका ध्यान कर रहे थे ? यह सोचकर मुझे महान आश्चर्य हो रहा है। आप मेरे परम प्रेमी हैं। कृप्या मेरी इस उलझन को दूर कीजिये।
भगवान् श्री विष्णु बोले - प्रिये ! मैं हृदय में जिसका ध्यान करता हूँ, उसका परिचय देता हूँ सुनो - पार्वती पति शंकर सबसे प्रधान माने जाते हैं। तुरन्त प्रसन्न हो जाना उनका स्वभाविक गुण है। उनके परक्रम की कोई सीमा नहीं है। कभी वे देवेश मेरा ध्यान करते हैं, और कभी मैं उनका ध्यान करता हूँ। उनका प्राण प्रिय मैं हूँ और मेरे प्रिय प्राण वे हैं। अतः दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। विशाल लोचने ! जो भगवान् शंकर से द्वेष करते हैं ,वे मेरे भक्त ही क्यों न हो ,किन्तु नरक में जाना उनके लिए अनिवार्य है। मैं यह बिलकुल सत्य बता रहा हूँ। लक्ष्मी जी का यह कथन सुनकर भगवान् शंकर ने मधुर स्वर में उन्हें आश्वासन देते हुए कहा - तुन्हें एक पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी। तुम्हारा वह पुत्र एकवीर नाम से प्रसिद्ध होगा। तुम हृदय में विराजमान रहने वाली भगवती जगदम्बा की सम्यक प्रकार से शरण ग्रहण करो।
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