गूगल से साभार चित्र 
      




         इस प्रकार लक्ष्मी जी को वरदान देकर गौरीपति भगवान शंकर पार्वती सहित अंतर ध्यान हो गए। लक्ष्मी जी वही रुककर भगवती जगदम्बा के अत्यंत मनोहर चरण कमलों का ध्यान करने लगी। पतिदेव हय का रूप धारण करके यहाँ कब पधारेंगे इस प्रतीक्षा में प्रेमपूर्वक गदगद वाणी से बार - बार श्री हरि  की स्तुति करने लगी।  

        लक्ष्मी जी को वर देकर भगवान् शंकर तुरंत कैलाश पहुंचे और वहाँ परम बुद्धिमान चित्ररूप को दूत बनाकर लक्ष्मी जी का कार्य पूर्ण करने के लिए वैकुण्ठ भेजने हेतु तैयार हुए।  भगवान शिव ने कहा - चित्ररूप ! तुम श्री हरि के पा जाकर इस प्रकार प्रेमपूर्वक मेरी बातें उन से कहो, जिससे वे श्री लक्ष्मी जी का  शोक दूर करने के लिए तुरंत प्रयत्नशील हो जाये। 

         श्री विष्णु जी के उत्तम धाम वैकुण्ठ की शोभा निराली है। सर्वत्र दिव्य हंस ,सारस ,मोर ,मुर्गे और कोयल दिखाई देते हैं। नाचने - गाने वाले कलाकारों से परिपूर्ण तरह - तरह के दिव्य वृक्षों ,पुष्पों ,वावलियों से उसकी अनुपम शोभा व्याप्त है। वहां जाने पर चित्ररूप को भगवान् विष्णु  का भवन दिखाई दिया। वहाँ जय और विजय नामक दो द्वारपाल हाथों में सुन्दर छड़ी लेकर विराजमान थे। 

     चित्ररूप ने कहा - द्वारपालों ! तुम परम प्रभु श्री हरि को समाचार दो की भगवान् शंकर का दूत द्वार पर खड़ा है। 

     द्वारपाल श्री हरि  को प्रणाम कर हाथ जोड़कर बोला - देव - देव रामकान्त ,केशव ! भगवान् शंकर का दूत द्वार पर आकर खड़ा है। भगवान विष्णु  ने अपने अंतर्यामी मन से दूत के आने का कारण समझ लिया और कहा - ठीक है उसे ले आओ। श्री हरि की आज्ञा पाकर जय तुरंत चित्ररूप को अंदर ले आये। भगवान विष्णु को साष्टांग प्रणाम कर खड़े हो गए। उनके प्रत्येक अंग से नम्रता टपक रही थी। भगवान विष्णु ने हँसकर चित्ररूप से पूछा - अनघ ! देवाधिदेव भगवान शंकर सपरिवार कुशल से हैं न ? उन्होंने तुम्हें यहाँ क्यों भेजा है?
     
      दूत ने कहा - देवेश ! उन्होंने कहा है कि विभो ! आप की पत्नी लक्ष्मी देवी यमुना और तमसा नदी के संगम पर तपस्या कर रही हैं। वे देवी घोड़ी का रूप धारण कर इस समय वहाँ पधारी है। जगत में कोई भी मनुष्य उनकी कृपा के बिना सुखी नहीं हो सकता। हरे ! फिर आप अपनी पत्नी का परित्याग कर के क्या सुख पा  रहे हैं ? दुर्बल और निर्धन व्यक्ति भी अपनी पत्नी की रक्षा करता है। फिर आपने जगत पर अधिकार रखने वाली लक्ष्मी का त्याग क्यों कर दिया है ? जगतगुरे ! जिसकी भार्या जगत में दुखी हो ,संसार में उसके  जीवन को धिक्कार  है।  शत्रु भी ऐसे व्यक्ति की निंदा करते हैं। जगत में किसी की भी सत्ता लक्ष्मी के बिना स्थिर नहीं रह सकती। आप  कृपया अभी अश्व का रूप धरण करके रमा देवी के पास पधारें। पुत्र उत्पन्न हो जाने के पश्चयात उन देवी को  लेकर वैकुण्ठ में आ जाएँ। 

     चित्ररूप की बात सुनकर भगवान विष्णु ने कहा - ठीक है ऐसा ही होगा। फिर उन्होंने चित्ररूप को भगवान शंकर के पास जाने की आज्ञा दे दी। 

   
       दूत के प्रस्थान करने के पश्चयात विष्णु ने सुन्दर अश्व का रूप धारण किया। और वैकुण्ठ से चल दिये।  उन्होंने देखा लक्ष्मी जी वहां अश्वी रूप में विराजमान थी।  लक्ष्मी जी विष्णु जी को अश्व रूप में देखकर तुरंत पहचान गयी। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। यमुना और तमसा के संगम पर विष्णु जी और लक्ष्मी का मिलन हुआ। वही उन्हें एक अनुपम गुण  संपन्न सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया। तदनतर भगवान विष्णु ने हंसकर लक्ष्मी जी से कहा - अब तुम अश्वी का रूप त्याग कर पूर्ववत देह धारण करो। हम दोनों अपने वास्तविक दिव्य शरीर धारण कर वैकुण्ठ चलेंगे। 

       
      दोनों दिव्य शरीर धारण कर एक उत्तम विमान पर विराजमान हुए। देवताओं ने उनकी प्रसन्नता के लिए यशोगान गए। तब लक्ष्मी जी ने श्री विष्णु से कहा - नाथ ! इस बालक को भी साथ ले लीजिये। मैं इसको त्यागना नहीं चाहती। यह मेरा पुत्र प्राणों से भी प्रिय है। श्री हरि ने कहा - वरानने ! इस समय खेद प्रकट करना उचित नहीं है। यह बालक यहाँ आनंद पूर्वक रहेगा।  व्याति के वंश में लोक प्रसिद्ध राजा हरि वर्मा हैं। इस समय वे पुत्र की इच्छा से तपस्या कर रहे हैं। प्रिये ! पुत्र की अभिलाषा  रखने वाले उन्ही नरेश को यह बालक सौंप देना है।  वे  स्नेह पूर्वक इसे  अपने घर ले जाकर इसका भली प्रकार लालन - पालन करेंगे। 



     


















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