महेश्वर और पार्वती अपने दोनों पुत्रों श्री कार्तिकेय और श्री गणेश की बाललीलाओं का आनंद लिया करते थे और उनके दोनों पुत्र भी प्रीतिपूर्वक अपनी विभिन्न लीलाओं के द्वारा माता -पिता को सदा असीम आनंद प्रदान किया करते थे। वे दोनों बालक स्वामी कार्तिक और गणेश भक्तिपूर्वक सदा चित्त से माता - पिता की सेवा किया करते थे।  
        एक समय शिव और शिवा दोनों एकांत में बैठकर विचार करने लगे कि अब ये दोनों बालक विवाह योग्य हो गए अब इनका विवाह कैसे संपन्न हो।  माता - पिता के विचारों को जानकर उन दोनों के मन में भी विवाह करने की इच्छा हुयी। वे दोनों पहले मैं विवाह करूँगा , पहले मैं विवाह करूँगा - यूँ कहते हुए परस्पर विवाद करने लगे। तब जगत के अधीश्वर लौकिक आचार के साथ बहुत विस्मित हुए। कुछ समय पश्चात् उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और कहा - 
          शिव - पार्वती बोले - सुपुत्रों ! हम दोनों ने पहले ही यह नियम बनाया है ,जिसे तुम लोग प्रेमपूर्वक सुनो। हमारा प्यार तुम दोनों के लिए सामान है और हमें तुम समान रूप से प्यारे हो।  तुम्हारे विवाह के लिए हमारी एक शर्त है। और यह शर्त तुम्हारे लिए विशेष रूप से अभी बनायीं गयी है ऐसा भी नहीं है। शर्त यह है कि तुम दोनों में से जो इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौट आएगा उसी का विवाह पहले किया जायेगा। 
         माता - पिता की यह बात सुनकर महाबली कार्तिकेय तुरंत ही पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए अपने वाहन मयूर पर चल दिए। परन्तु अगाधबुद्धि  संपन्न गणेश वहां खड़े विचार करने लगे ,वे अपनी उत्तम बुद्धि का आश्रय ले बार - बार मन में विचार करने लगे कि परिक्रमा मुझ से हो नहीं सकेगी। एक  कोष चलने के बाद ही आगे मुझसे चला नहीं जायेगा। फिर सारी पृथ्वी की परिक्रमा कैसे करूँगा ? इसके पश्चात अचानक गणेश अपने घर लौट गए और विधिपूर्वक स्नान किया तथा माता - पिता से बोले -
         गणेश जी बोले - पिताजी एवं माता जी! मैंने आप दोनों की पूजा करने के लिए यहाँ दो आसन लगा दिए हैं।  आप दोनों इसपर विराजें और मेरा मनोरथ पूर्ण करें। गणेश जी की बात सुनकर पार्वती और परमेश्वर उनकी पूजा ग्रहण करने के लिए आसन पर विराजमान हो गए। तब गणेश ने उनकी विधि पूर्वक पूजा कर बारम्बार प्रणाम करते हुए उनकी सात बार प्रदिक्षणा  की।  
         गणेश तो बुद्धि  के सागर हैं ही वे हाथ जोड़कर प्रेममग्न माता - पिता की अनेक बार स्तुति करके बोले - श्री गणेश जी बोले हे ! माता जी एवं पिता जी अब आप मेरा शीघ्र विवाह कर दीजिये। 
        शिवा - शिव ने कहा - बेटा ! तू पहले काननों सहित इस सारी पृथ्वी की परिक्रमा कर। कुमार इसके लिए गया हुआ है ,तू भी जाकर लौट आ। यह सुनकर गणेश कुपित होकर बोले -
         गणेश  जी ने कहा - हे माता जी एवं पिताजी ! आप दोनों सर्वश्रेष्ट धर्मरूप और महाबुद्धिमान हैं अतः धर्मानुसार मैंने पृथ्वी की सात बार परिक्रमा की है। फिर आप लोग ऐसी बात क्यों कह रहे हैं ? 
         शिव पार्वती बड़े लीलानंदी होकर गणेश का वचन सुनकर लौकिक गति का आश्रय लेकर बोले -
         शिव - पार्वती  कहा - पुत्र ! तूने समुद्रपर्यन्त विस्तार वाली इस सप्तद्वीपवती विशाल पृथ्वी की परिक्रमा कब कर ली ? शिव - पार्वती के ऐसा कहने पर महान बुद्धि संपन्न गणेश बोले -
         गणेश जी ने कहा -  पिता जी ! मैंने अपनी बुद्धि से आप दोनों शिव - पार्वती की पूजा करके प्रदक्षिणा कर ली।  अतः मेरी समुद्र पर्यन्त पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो गयी। धर्म के संग्रह भूत वेदों  शास्त्रों में जो ऐसे वचन मिलते हैं  , वे सत्य हैं अथवा असत्य कि जो पुत्र माता - पिता की पूजा करके उनकी प्रदिक्षणा करता है उसे पृथ्वी परिक्रमा जनित फल प्राप्त सुलभ होता है ,जो माता - पिता को घर पर छोड़कर तीर्थयात्रा पर जाता है ,वह माता - पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है। क्यूंकि पुत्र के लिए माता - पिता  का चरण सरोज ही महान तीर्थ होता है।  अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं। परन्तु धर्म का साधनभूत तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए  माता - पिता और स्त्री के लिए पति ये दोनों सुन्दर तीर्थ तो घर पर ही वर्तमान हैं।  ऐसा जो वेद शास्त्र घोषित करतें हैं  यदि मेरी परिक्रमा असत्य है तो वेद - शास्त्र भी असत्य है। इसलिए शीघ्र ही मेरा विवाह कर दीजिये। अथवा कह दीजिये कि वेद - शास्त्र झूठे हैं।  आप दोनों धर्म रूप हैं। इतना कहकर बुद्धिमानो में  श्रेष्ठ , उत्तम बुद्धिसम्पन्न  पार्वतीनन्दन गणेश चुप हो गए।  
         यह सुनकर दोनों पति - पत्नी, पार्वती और  शिव परम विस्मित हुए।  तब वे अदभुत बुद्धिवाले  अपने पुत्र गणेश की प्रसंसा करते हुए बोले - 
        शिवा -शिव ने कहा - पुत्र तू महान आत्मबल से संपन्न है। इसी से तुझमे निर्मल बुद्धि उत्पन्न हुयी है। तूने जो बात कही  वह बिलकुल सही है। दुःख के आने पर जिसकी बुद्धि विशिष्ट हो जाती है उसका दुःख उसी तरह विनष्ट हो जाता  है जैसे सूर्य के प्रकट होने पर अंधकार।  जिसके पास बुद्धि है वही बलवान है। पुत्र वेद - शास्त्र ओर पुराणों में बालक के लिए धर्म पालन की जैसी बात कही गयी है ,वह सब तूने पूरी कर ली।  तूने जो बात कही  वह दूसरा कौन कर सकता है।  हमने तेरी बात मान ली। अब इसके विपरीत नहीं करेंगे।  
        इसी समय जब प्रसन्न बुद्धिवाले प्रजापति विश्वरूप को पता चला तो इसपर विचार करके उन्हें परम सुख प्राप्त हुआ। प्रजापति विश्वरुप के दिव्य रुप संपन्न एवं सर्वांगशोभना दो सुन्दर कन्यायें थी। जिनका नाम सिद्धि और बुद्धि था।  भगवान् शंकर और गिरिजा ने उन दोनों  के साथ हर्ष पूर्वक गणेश का विवाह संस्कार कर दिया।  इस अवसर पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होकर पधारे शिव - पार्वती के मनोरथ के साथ विश्वकर्मा ने वह विवाह संपन्न करवाया। जिसे देखकर ऋषियों और देवताओं को परम हर्ष हुआ।  
        कुछ काल के  पश्चात महात्मा गणेश के दोनों पत्नियों से दो दिव्य पुत्र उत्पन्न हुए उनमे गणेश पत्नी सिद्धि से क्षेम नामक पुत्र और बुद्धि के गर्भ से जिस सुन्दर बालक का जन्म हुआ उसका नाम लाभ हुआ।  इसके पश्चात शिव - पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिक पृथ्वी की परिक्रमा कर के लौटे। उस समय नारद जी ने आकर कुमार स्कन्द को  सब समाचार सुनाया।  कुमार  के मन में बड़ा दुःख हुआ और वे क्रोधित होकर शिव - पार्वती के रोके जाने पर भी नहीं रुके ओर क्रोंच पर्वत की और चले गए।  
         उसी दिन से शिव पुत्र स्वामी कार्तिकेय का कुमारत्व प्रसिद्ध हो गया। वह शुभदायक सर्वपापहारी पुण्य में और उत्कृष्ट  ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रदान करने वाला है। कार्तिक मास की पूर्णिमा को सभी देवता , ऋषि तीर्थ और मुनिश्वर सदा कुमार का दर्शन करने के लिए  क्रोंच पर्वत पर जाते हैं।  जो मनुष्य कार्तिक की पूर्णिमा के दिन  कृतिका नक्षत्र योग होने पर  स्वामी कार्तिकेय का दर्शन करता है उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।  और उसे मनोवांछित  फल की प्राप्ति होती है। 
           स्कन्द विछोह हो जाने पर उमा को महान दुःख हुआ। तब पार्वती जी ने शिव से कहा - कि आप मुझे वहां लेकर चलिए।  तब प्रिया को सुख देने के लिए स्वयं भगवान् शिव अपने एक अंश से उस पर्वत पर गए और कुमार कार्तिकेय को हर तरह से समझाया की वह वापस अपने घर चलें। लेकिन कुमार कार्तिकेय इसबात के लिए राजी नहीं हुए।  इसके पश्चात् भगवान् शिव  सुखदायक मलिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ प्रतिष्ठित हो गए।  वे सत्पुरुषों की गति तथा सभी भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते हैं।  अमावस्या के दिन वहाँ स्वयं शम्भु पधारते हैं। 
          जो मनुष्य इस चरित्र को पढ़ता ,सुनाता और सुनाता है। निसंदेह उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते है। यह अनुपम आख्यान  पाप नाशक कीर्तिप्रद ,सुखवर्धक ,आयु बढ़ने वाला , स्वर्ग की प्राप्ति करने वाला , पुत्र - पौत्र की वृद्धि करने वाला और  शिव भक्ति पूर्वक है।  यह कल्याणकारी शिवजी के अद्वैत ज्ञान का दाता और सदा शिवमय है। अतः मोक्षकामी एवं निष्काम भक्तों को सदा इसका श्रवण करना चाहिए। 
       श्री गणेश जी अबोधिता के दाता हैं। क्यूंकि के वे स्वयं भी  अबोध हैं।  अबोधिता को मुर्ख नहीं बनाया जा सकता। यह  सबसे विवेक पूर्ण चीज है। अबोधिता किसी को भी हानि नहीं पहुँचती। जिस तरह एक बच्चा माँ के द्वारा पोषित होता है। वह सब कुछ एकाग्रता में  ग्रहण करता है। वह चिंता नहीं करता है, की वह क्या कर रहा है ,क्या पकड़ रहा है , कौनउसके पास बैठा है ,उसका किसी के साथ क्या सम्बन्ध है और न ही वह भविष्य की चिंता करता  है। क्यूंकि की वह अबोध है।  अबोधिता उसे वर्तमान में रखती है।  वह सब कुछ अपनी माँ पर छोड़ देता है  और माँ ही उसका सब तरह से ध्यान रखती है।  
         श्री गणेश के लिए अपनी माँ के सिवाय कोई और देवी देवता नहीं हैं। वे अपनी माँ से बहुत ही आदर युक्त प्रेम करते हैं  ,क्यूंकि उनको ज्ञात है की उनकी माँ ही शक्ति है। और वह ही उनके विवेक का श्रोत है।  श्री गणेश को प्रसन्न करने के लिए   आप उनकी माँ की पूजा करें।  
       इसलिए गणेश के मोह में गरिमा होती है। वे बच्चे के जैसे दिख सकते हैं लेकिन वे एक बूढ़े व्यक्ति हैं। वे सब से बड़े हैं और इन करोड़ो वर्षों के बाद भी उन्होंने अपनी  अबोधिता अक्षत रखी है।  
        अबोधिता का दूसरा रूप प्रसन्नता है।  एक छोटा बालक सदा परिवार के चित्त को प्रसन्नता प्रदान करता है।  अबोधिता सुंदरता प्रक्षेपित करती है। जब आप अबोधिता को लाड - दुलार करने की कोशिश करते हैं ,जब आप अबोधिता से  अधिक स्नेह करते हैं ,वह सुंदरता प्रक्षेपित करती है। वह शांत करती है। यदि हम एक छोटे बच्चे को प्यार करें  और उससे स्नेह करें तो वह बच्चा प्रसन्न हो जाता है।  और आपको तनाव मुक्त कर देता है। श्री गणेश  आपको सम्पूर्ण बनाते हैं। पहले आप एक बिंदु पर होते हैं जहाँ श्री गणेश प्रसन्न है ,तो आप भी प्र्सनता का अनुभव करते हैं।  श्री गणेश आपको विनम्र बनाते हैं और विनम्रता से संसार के हर दुष्कर कार्य को भी बहुत सहजता से पूर्ण  किया जा सकता है। 

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